लेखक की कलम से
ओ मनवा रे ….
ओ मनवा रे
काहे उदास हुआ जाए रे
पाना-खोना जीवन है
फिर क्यों घबराए रे
ओ मनवा रे
काहे बैचेन हुआ जाए रे
पक्षी टूटे घोंसले को
अपने से बनाए रे
टूटा मन पुनः
खुद भावों से जुड़ जाए रे
ओ मनवा रे
कहे विकल हुआ जाए रे
प्रलय के तूफानों ने निगला
मानव जीवन को रे
फिर सृष्टि ने सजा लिया
नित्य नूतन जीवन रे
ओ मनवा रे
काहे व्याकुल हुआ जाए रे
मृत्यु के दावानल ने
ज्वलित किया हर द्वार को
आशा की ज्योति ने
जन्म दिया नव चाह को
ओ मनवा रे
काहे अधीर हुआ जाए रे।
©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता