लेखक की कलम से

कलॉइडोस्कोप …

दिल्ली की चिलचिलाती गर्मीयों में जब पूरी दिल्ली धम्म पीली नज़र आती है ऐसी ही गर्मीयों की एक ढलती दोपहर में हम निकले कनॉट प्लेस की ओर ,ब्रिटिश कॉलिनियल ज़माने की याद दिलाता यह बाज़ार जहाँ बडे वातानुकूलित शोरूम और रेस्तरां में ऐंठे दुकानदार और बाहर के गलियारों, फुटपाथ पे बैठे दुकानदार, ये अजीब संगम आज भी आम और खा़स के फर्क को भूलने नहीं देता बहरहाल हमें लेना था पोस्टर, फुटपाथ पर एक महिला ढेर सारे पोस्टर बिछाये बैठीं थी सो हम उसकी ओर पहुंच गए पोस्टर छांटने लगे थोड़ी देर बाद उसका पाँच छह साल का बेटा कुछ नाश्ता लिए अपनी माँ के पास पहुंच गया ,माँ से मनुहार करनें लगा कि वो खा ले,माँ कहती पहले तू खा ले बेटा,माँ बेटे के बीच यह संवाद काफी देर तक चलता रहा आखिर माँ ने एक निवाला खाया तभी उसका बेटा खाने को राजी हुआ, पोस्टर छाँटते छाँटते हम माँ बेटे के रिश्ते के मर्म को कनखियों से देख रहे थे ना सुनने का नाटक कर सबकुछ सुन रहे थे,सभी ने उस महिला से कहा कि वह कितनी खुशनसीब है।

इतने साल हो गये इस वाकिये को पर उस माँ बेटे की छबि मेरे दिलोदिमाग में अब भी ताज़ा है उस दिन मोल लिए सामान के साथ बहुत कुछ अनमोल लिए जा रही थीं और था विरोधाभास के अज़ीमुश्शान शाहकार चार्ली चैपलिन का पोस्टर।

 

   ©वैशाली सोनवलकर, मुंबई  

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