लेखक की कलम से

साज़िश …

साजिशे रचे अनेक

 

न चैन की नींद

 

रास्ते में बिछाने कांटे

 

सोचता रहा हमेशा

 

कांटे नहीं चुभते शरीर में

 

चुभते है मन में

 

चीत्कार उठता है मन

 

पीडा होने लगी असह्य

 

विश्वास को भी देकर मात

 

रचता गया साजिशें इन्सान

 

गर्म खून है इन्सान का

 

उगलता है आग शब्दों से

 

नफरत की ज्वाला फैलाकर

 

मारता है तलवार वह

 

पीठ पीछे निकलता है लहू

 

उसका खत्म हुआ जीगरा भी

 

कब्र मात्र दिखाई देता उसे

 

नफरत से हुआ अंधा

 

रचता कुँआ स्वयं के लिए

 

रिश्तों के दलदल में

 

फँसता गया आदमी

 

हर तरफ गिरती बिजली

 

दुश्मन के साथ मिलकर

 

साजिशें करता नहीं थकता

 

आग जलकर राख बन जाती

 

सीने में छ न हो जाती है

 

सबके सामने बयां करते हुए

 

बहा रहा अश्रु इंसान

 

कह रहा दिल की बात

 

मत कर नफरत

 

मत कर साजिश …

 

   ©डॉ. अनिता एस कर्पूर, बेंगलूरु, कर्नाटक   

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