लेखक की कलम से
निर्झरिणी…
मैंने जला दिए
गर्म अँगीठी में
तुम्हारे ख़त,
गठरी में बाँध
फेंक आयी
अरण्य में
तुम्हारी स्मृतियाँ,
काया की
आकृतियों में
भर दिये
स्याह रंग
और मिटा दिये
चिह्न हाथों के,
जिनमें कभी
नाम लिखा था
तुम्हारा।
मैंने फूँक दी
रातों की नींदे,
सुबह की द्युति
और जीने की वस्तुएँ
क्योंकि ऐसे ही
मिटा सकती थी
तुम्हारी छवि
मेरे प्रारब्ध से।
मैं रही
आडम्बरी
तुम्हारे समक्ष।
ऐसा ही
आभार था मेरा
तुम्हारे प्रति।
क्योंकि अब के
नेह को कुत्सित कर
निर्झरिणी
मलिन नहीं होगी।
©वर्षा श्रीवास्तव, छिंदवाड़ा, मध्यप्रदेश