छत केवल छत नहीं. . .
छत से छत लगती है
दीवार से दीवार लगती है
न जाने कितनी बातें
कितने आंसू, कितनी चीखें
कितनी कहानियाँ दोनों दीवारों के बीच
महीन सी दरार में छिपकर सांस लेती होंगी
हर घर की छत कुछ कहती है
किसी घर की छत पर बड़े बड़े ड्रमों को काटकर
लगाए पौधे सूखे हुए मन की हरियाली
से परिचित करवाती हुई छत पर
फुदकते इक्का दुक्का कबूतरों के परों
की गुम हो चुकी आवाजों से मुझे
अचानक किसी सुनसान, खंडहर हो चुके
खुशी गम के कहकहों की रंगीनियों में ले गई
छत पर पानी की टंकी के नीचे
दीवारों में अपने आप उग आए पीपल
मुझे घर छोड़ कर जाने वालों
के पास ले गए
डूबता सूरज एक दिन मेरे डूब जाने
की ओर इशारा करता अपनी लालिमा से
सरोबार कर गया मुझे
बचपन में छत से छत लगते न जाने
कितने घरों में घूम आने…कहीं पी हुई छाछ की खटास
में घुले प्यार, कहीं किसी घर में खाए
सरसों के साग की महक , तैरते देसी घी के स्वाद में
धुंधले , तस्वीर हो चुके चेहरों के फ्रेम में कैद कर गया
छत पर जाकर मुझे आपा धापी,
न जाने कहाँ पहुंचने की दौड़ , झूठ फरेब
से सनी दुनियादारी से ऊब चुके मन को
जैसे उड़ते पंछी, डूबते सूरज, विराट आकाश
मंद मंद बहती हवा ने मुझे मेरी देह से
निकलने को आतुर होती आत्मा को कुछ पल
सुकून के दे धुंआ होती जिंदगी
टुकड़ा टुकड़ा खत्म होते , मरते खपते
लोगोंं की भीड़ से आज़ाद कर
आसमान में विचरने दिया
छत केवल छत नहीं
एक मुकम्मल जिया गया वक्त है. . .
©सीमा गुप्ता, पंचकूला, हरियाणा