बिलासपुर

घरों में भूख और सूने चौराहे …

✍ ■ नथमल शर्मा

अरपा से चार कदम दूर ही है बृहस्पति बाज़ार चौक। कोविड-19 के कारण बेहद सूनसान। हमेशा ही यहां इतनी भीड़ होती कि निकलना मुश्किल होता। अब कोई नहीं। यहीं पर सबेरे से आ जाते थे अनेक मज़दूर, मिस्री, रेजा। सबेरे से लग जाती भीड़। ये कुछ तो शहर से ही और बाकी आसपास के गांवों से आते। घरों में छोटे-मोटे काम के लिए मजदूरों को लेने यहीं आते लोग।

जिनको अपने घरों में काम कराना होता वे यहां आते। काम बताते। मोल-भाव करते और जम गया तो ले जाते। कोई बिज़ली सुधारने वाला तो कोई नल सुधारने में माहिर। ज्यादातर ईंट गारे के काम वाले और दीवाली या अन्य त्यौहारों के समय घरों की सफ़ाई वाले भी इसी बृहस्पति बाज़ार चौक पर ही मिल जाते। पेट की जरूरत ही इन मजदूरों को इस चौक पर ले आती। हालांकि जिन मालिकों को बहुत ही जरूरत होती वही ले जाता इन्हें। कहते कि चौक से लाए हुए ये लोग घड़ी देख कर काम करते हैं। यानी मालिकों को पुसाता नहीं। पांच बजा नहीं कि अपनी मज़दूरी लेकर चलते बने। हमने स्वभाव से ही खुद को शोषक के रूप में ही ढाल लिया है। ज्यादा से ज्यादा काम करवाकर कम से कम रोज़ी देना हमारे स्वभाव का हिस्सा होकर रह गया है। पांच सात सौ के पिज़्ज़ा या केक यूं ही उड़ा लेने वाले हम लोग ऑटो या रिक्शे वाले से दस-पांच रुपए के लिए झंझट करते ही हैं।

ख़ैर ये तो एक बात हुई। बात दरअसल यह है कि अपना यह बृहस्पति बाज़ार भी इन दिनों सूना-सूना सा ही है। इसी के सामने है स्कूल और ज़रा सा आगे है छत्तीसगढ़ स्कूल। पीछे देवकीनन्दन कन्या शाला भी है। इस शाला की प्राचार्या कमला दसाज को नए बच्चे भले ही न जानते हों। 40 बसंत पार वाले (वालियां) सब जानते ही हैं। दसाज मैडम का अनुशासन! मज़ाल थी कि कोई जरा भी चूं-चपड़ कर सके। छात्राएं ही नहीं शिक्षिकाएं भी उतना ही सम्मान करतीं और डरतीं भी। शादी-ब्याह करके दूर शहरों में रह रहीं, दादी-नानी बन गईं वे सब भी नॉवल कोरोना विषाणुओं से सूने हुए शहर में अपने घरों बंद हैं। याद तो करती ही होंगी अपनी स्कूल और मैडम को। सेवानिवृत्ति के बाद साईं भक्ति में रमी रहने वाली दसाज मैडम से मिले कितने ही महीने हो गए। पिछली बार मनीष दादा के काव्य भारती परिसर में मिलीं थी वे। अभी भी स्मरण शक्ति गज़ब की है।

बृहस्पति बाज़ार चौक के आस-पास ही ये सब कुछ था कोरोना विषाणुओं के हमले से पहले। अब तो ये चौक सूना-सूना सा ही है। इस चौक पर काम की तलाश में आकर, काम हासिल कर रोज़ी लेकर लौटने पर शाम को रोटी बनती थी उन मजदूरों के घरों में। कितने दिन हो गए वे आए नहीं। गावों में, शहर में भी अपने घरों में बंद है। किस तरह गुजारा कर रहे होंगे ? अपने घरों में देड़ दो माह का राशन, सामान भरकर कोरोना विषाणुओं से बचने लाकडाऊन में हम लोगों को किसी दिन आई क्या उनकी याद ? घर के किसी कोने के हाल ही में हुए प्लास्टर को देख कर याद आई क्या कि पिछले महीने ही तो बैसाखू या रामभरोसे से मरम्मत करवाई थी। आई हो तो अच्छा ही है, प्रकृति ने अपने घरों में इतने दिनों से बंद कर कुछ संवेदनशील तो बना ही दिया होगा।

सूनसान तो सदर बाज़ार का ऊदल चौक भी है। ये मजदूरों का बाज़ार या मंडी पहले यहीं हुआ करती थी। ऊदल चौक के तीन पुराने नीम के वृक्षों के नीचे ही जमा होते थे मजदूर। काम की आस लिए आते। जिन्हें काम मिल जाता वे तो काम पर चले जाते पर बहुत सारे ऐसे भी होते जिन्हें उस दिन काम नहीं मिल पाता। वे कई बार तो बारह- एक बजे तक वहीं रहते। सड़क किनारे तब तक धूप भी तेज हो जाती। साथ लाई रोटियों के मुड़े-तुडे थैले को लिए कहीं किनारे जाते और खा लेते या फिर कभी बिना खाए ही लौट जाते लेकिन तब तक सदर बाज़ार की दुकानें खुल जाती और बिना ग्राहकों वाली इस भीड़ से परेशानी होने लगी। रसूखदारों की परेशानी जल्दी दिख जाती है। प्रशासन ने इन्हें यहां से हटा दिया और बृहस्पति बाज़ार चौक पर खड़े होने कहा। मेरे पत्रकार मित्र प्राण चड्ढा ने इन पर सबसे पहले रिपोर्ट की थी। मजदूरों की मंडी या ऐसा ही कुछ शीर्षक दिया था। फिर बहुत साथियों ने इन पर लिखा।

कोविड 19 में ये दोनों ही चौक क्यों, शहर, गांव, देश, दुनिया सब घरों में ही बंद है। अब ये लोग काम मांगने नहीं आ रहे। दरअसल आ ही नहीं सकते। तो फ़िर इनके घरों में रोटियां कैसे बन रही होगी ? बचाकर रखे हुए चावल तो खत्म होने आए होंगे। उन तक तो सेवा करने वाले भी कहां पहुंच पा रहे हैं। फोटो तो कहीं भी खिंचवाई जा सकती है। सरकार ने राशन दुकानों में दो माह का राशन भेज दिया है। सिवाय आदेश ज़ारी करने के और कोई उपाय भी नहीं दिखता कि पता चल पाए उन्हें मिल रहा है या नहीं।

अफसरों की फाइलों में पंचों सरपंचों की भी गाथाएं भरी पड़ी है। अपने यहां आए किसी मजदूर का मोबाइल नंबर भी रखते नहीं हम अपने पास कि उससे पूछ ही लें, सब ठीक तो है ? लाकडाऊन में सूनी सडकें और घरों में हम गुलज़ार। घरों में बच्चे बोर हो गए हैं घर की चीजें खाकर और उधर उनके यहां नन्हे तरस रहे हैं कि पेट भर कर कुछ खाने मिल जाए। अरपा भी मन मसोसकर सब देख रही है। कोविड 19 से मरने वालों के नए आंकड़े दिखा कर चीख रहे हैं चैनल। बताते हैं कि अमेरिका में सबसे ज्यादा मरे। इन एंकरों की चीख इतनी तीखी है कि अमेरी (घुरू) के बच्चों की सिसकी सुनाई नहीं दे रही।  

–लेखक देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।

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