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ज़िद ….

 

उदासियों के महासागर में,
आओ भर लें कुछ आशाएं
मिट्टी की गागर में।
एहतियात से रख दें
कागज की किश्ती में।
सपनों की पतवार थमा,
उतार दें लहरों में
ये सोच कर कि
तिनके का सहारा भी
जो मिल गया किस्मत से
थोड़ा सम्बल मिल गया
जो हिम्मत से
तो लहरों के उतार चढ़ाव
को मात दे कर
आत्मविश्वास पर गर्व कर
अपनी ज़िद में आ कर
शायद पहुंच जाए
सागर के उस पार।

आशाएं पालने में
सपने बुनने में
दुर्लभ को पाने की
जिद करने में
हर्ज ही क्या है?
खुद को सशक्त
समझने में हर्ज ही क्या है?
तभी तो असम्भव
सम्भव हो पायेगा।
इच्छाशक्ति के आगे
पर्वत भी झुक जाएगा।
ज़िद के आगे
तूफान भी राह बदल
धीमे कदमों से गुजर जाएगा।

किसी ने क्या सोचा था कभी
कि एक दिन
एक अदृश्य शत्रु आएगा।
जिसका सामना करना मुश्किल हो जायगा।
लेकिन हर कोई
जंगे मैदान में डटा है।
विजयी होने की ज़िद
पर अड़ा है।
यही ज़िद
जीत की राह दिखायेगी।
मुश्किल राह को
आसान बनाएगी।
मंजिल को पास ले जाएगी।
जीत का
बिगुल बजाएगी।
मुस्कानों का
गुलदस्ता बन जाएगी।

 

 

©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात          

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