लेखक की कलम से

प्रकाश पर्व …

लाखों झिलमिलाता दियों की जगमगाहट

में एक टिमटिमाते तारे ने कहा।

कच्चे घरौदो के, मीठे दिलो के, अरमानों की दिवाली

याद आती है।

मुन्नी की नम आँखों से खुशियाँ की

बरसातें, चाहे कम थे पैसे, अहसास के लम्हों का

प्रकाश पुंज जुगूनु दिल में रोशन हो जाते थे।

घर को मंदिर की तरह सजाते थे।

मिलजुल कर पकवान बनाते थे।

घर में जगह न हो, दिल में रिश्ते बस जाते थे।

एक कच्ची छत के नीचे सब मिल कर

हंसी खुशी ठहाके लगाते थे।

लिपाई पुताई करते सब घर के लोग

फूलों के बंधनवार से मुख्यद्वार सजाते थे।

आंगन में रंगोली बना दीपों से सजाते थे।

मिट्टी के घर की खुशबू मेरे जहन में आज

भी सौंधी खुशबू बन रम गई है।

दिवाली में पिताजी से आस लगा

डियोडि, मुंडेर पर नन्हें पंछी की भांति

इंतजार करते।

उनकी साइकिल की घंटी सुनते हम

नन्हे पंखों की उड़ान भर पटाखे देख

खुशी मनाते थे।

यादों की मीठी स्मृतियों की दिवाली

कच्चे घरों की गुड से भी मीठी अहसास भरी,

बिजली की लड़ियों से भी निराली होती थी

मिट्टी के दीयों की दिवाली।

मेरे कच्चे घर की, विशाल ह्रदय की जगमगाती

दिवाली।

हर साल बच्चों को नये कपडे,माँ को सूती साडी,

दादी दादा, सबके मन पसंद पकावानों की खुशबू

से महकती दिवाली।

मेरी स्मृतियों की दहलीज पर हर साल मनाई जाती है।

बचपन की दिवाली।

 

©आकांक्षा रूपा चचरा, कटक, ओडिसा

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