लेखक की कलम से

मन की दिव्यांगता …

दिव्यांगता जन्मजात हो तो इलाज़ नहीं हो सकता, औऱ अगर इलाज़ हो तो समय पर करने में भलाई, पर हम इंसान आस्तित्व में मानसिक अपँगता को ओढ़े रहते हैं।

कान के बहरे दूसरों की बातों में आ रिश्तो को तिलांजलि दे देते हैं।आँखे सच झूठ ढंग से नहीं देखती अन्धापन ओढ़े बेलगाम चलती सी। ज़ुबाँ स्वाद की चटोरी।बग़ैर नमक मिर्च लगाए आगे बढ़ती नही।आग से झुलसी जब देखो तब रिश्तो को स्वाहा:करती रहती। यह आम साधारण इंसान का सच है फ़िर वह मैं रहूँ या आप या कोई भी

अनुभव की झुर्रियां, बालो में हल्की सी चाँदनी लिए मैं सतत आगे बढ़ रही हूँ मैं .. जहाँ डर नही।कोई कसौटी नहीं।

एक सखी एक माँ के साथ कई सजग किरदारों को आग़ोश में लिए।निश्छल नदी सी बढ़ रही हूँ मैं।

इस उम्र के पड़ाव पर अनुभवों की झोली भरी हुईं हैं।

अक्सर एकांत में ढूँढती हूँ उस झोली में से कुछ कैद अनुभव परिस्थितियों के अनुसार।गौर से देखती हूँ घण्टो एक अदद मुलाक़ात के साथ करती हूँ जी भर बातें। उस कैद पल के साथ जीती हूँ वे सुखद पल।बंद आँखो में फिर उभर आते हैं वे लम्हे।

एक सजीव चित्र उस पल का।सोचने लगती हूँ उस कालखंड को। कैसे जिया था वह लम्हा, कैसे मुक्त हुई थी उस परिस्थिति से।कुछ महसूस होता है फिर काँधे के पास, हलचल थम जाती है आँखो की।उँगलियों को मानो कोई सहला रहा हो। आँखे खुलती है तो कैद लम्हा मुस्कुरा रहा होता है।मंद मंद।

कहता है।आगे बढ़ो तुम्हारा शुक्रिया की तुमने हमे महफ़ूज़ रखा है।

गुफ़्ततगु के बाद वह स्वतः ही कैद हो जाता है।

मैं चाहूं या न चाहूं

खास आदत मैं भूलती कुछ नहीं हूँ।सहेज लेती हूँ। सम्मान सहित पढती हूँ उन उदासियों में या जब मैं बोर हो रही होती हूँ।

परिस्थितियों के मुताबिक़ आज भी कई लम्हे कैद है।मनचाहे वक्त के साथ,उन्हें ओढ़ लेती हूँ।सर्दियों में कुनकुनी धूप से काम करते हैं कुछ तो कुछ तपती धूप में दे जाते हैं एक ठंडी छाँव।

क़भी बारिश की बूंदों से चेहरे पर ताजग़ी बिखेर देते हैं।

बस लम्हे जिंदा रहते हैं। शख्शियतों को तिलांजलि देने में वक्त नहीं लगाती मैं।वे मेरे सामने आते भी है तो उनका वजूद याद नहीं रहता।वज़ह लम्हा हावी होता हैं।चेहरा नही।वह बदलता रहता है।

हाथ मे गर्म कॉफी के साथ मायूस लम्हें निहारते रहते हैं मुझें।

मैं भी तसल्ली देती रहती हूँ।जब तक हूँ तब तक तुम सबका वज़ूद। मैं नहीं रहूँगी । तभी एक मासूम लम्हा बिस्कूट सा आ ठहरता है प्याली के पास।कोई सवाल पूछे मैं उसे एक चुस्की में अपने रूह में उतार लेती हूँ।पता है क्यों ?

उसे प्रश्न औऱ उत्तर के झमेले से दूर जो रखना चाहती हूँ।

अंत मे अपंगता को रास्ता दीजिए।निकल जाने दीजिए स्वेच्छा से।

पता चला पोटली बेवज़ह के भार से गई तो घसीटते ले जाना पड़ेगा।कदम लड़खड़ाने से बेहतर है पैरों को अपँग होने से बचाया जाए।

बेवज़ह की उपस्थिति दर्ज़ कराने वालों को राम राम करना ही सही????

सीधी बात no बकवास।

नम्र निवेदन..

ज़िन्दगी के अनुभव मेरे अपने है। मैं उसे ही उकेरती हूँ। कृपया आधार बन जुड़ने की या जोड़ने की कोशिश न करें। यह को-incidence हो सकता है कि कुछ अनुभव मुझसे मिलते जुलते हो। क्या करें ज़िंदगी है तो अनुभव भी।

 

©सुरेखा अग्रवाल, लखनऊ                                              

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