लेखक की कलम से

हमें और जीने की चाहत न होती…….

किसानों के हक़ में जो चिल्ला रहे हैं
वही आग ज्यादा भड़का रहे हैं

लिए हैं बहाना किसानों के हित का
वही चाकू सड़कों पे चलवा रहे हैं

वो बंदूक रखकर किसानों के कांधे
सियासत को अपनी भी चमका रहे हैं

नहीं कोई मुद्दा न बातें ज़मी की
अना को वो अपनी मरे जा रहे हैं

लिये फिरते हांथों में अपने तिरंगा
मगर दूसरा झंडा लहरा रहे हैं

इरादा रहा है हमेशा सियासी
लड़ाई इसे हक़ की समझा रहे हैं

कि बन के जो बैठे हितैषी किसां के
किसानों को दंगों में मरवा रहे हैं

©डॉ रश्मि दुबे, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश

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