लेखक की कलम से

वो रिक्शे में परदा और उदास आंखें …

✍ ■ नथमल शर्मा

अपनी अरपा के पानी में कोई ख़ास बात है। है ही, आख़िर इसमें अमरकंटक की माटी जो समाहित है। इसीलिए यह हमें सभ्य बनाती है। संवेदनशील बनाती है। आज तो कोविड 19 ने सबको घरों में बंद रखा है। पर ये बात कोई सौ बरस पुरानी है ।उन दिनों कलकल बहती थी अरपा। गोंडपारा इसी के बिलकुल किनारे। यहीं किताबें बेचने वाले एक शख़्स सीताराम मंदिर के पास रहते थे। अपनी छोटी सी किताबों की दुकान में कुछ पेंसिल, कागज़, कापियां भी रख लेते। स्कूल पढ़ने वाले बच्चे भी इसीलिए उनकी दुकान पर आते। सदर बाज़ार की सड़कों पर तब रिक्शे चलने लगे थे। वे देखते कुछ रिक्शों में चारों तरफ़ परदा बंधा होता। अज़ीब लगता। पता चला कि ये मुस्लिम महिलाएं हैं जो इस तरह परदे में रहकर निकलतीं हैं। यही बात उन्हें सालते रहती।

 दोस्तों से चर्चा और लगातार सोचने पर लगा कि शिक्षा की कमी भी एक बड़ा कारण है। बस जुट गए शिक्षा का अलख जगाने। 1926 में रफ़ीक मंज़िल में एक कमरा किराए पर लिया और मदरसा शुरू किया। मुस्लिम लड़कियों को पढ़ाने लगे। फ़िर ऐसा जुनून कि गोंडपारा का अपना घर ही कर दिया स्कूल के नाम। एक व्यक्ति के समर्पण और धुन का ही परिणाम है आज वहीं तो सुब्हानिया अंजुमन इस्लामिया स्कूल है। किताबें बेचने वाले उन शख़्स का नाम था हकीम मोहम्मद अब्दुल सुब्हान।

 कोविड 19 कोरोना महामारी ने दुनिया को त्रस्त कर रखा है। सौ बरस पहले 1918 में प्लेग महामारी से लगभग ऐसे ही हालात हुए थे। तब भी क्वेरेंटाइन सेंटर बनाए गए थे। प्लेग से लाखों लोग मर गए। हालांकि मनुष्य की जीजिविषा उसे हर बार लड़ने और जीतने का हौसला देती है। उस वक्त भी दुनिया इससे उबर ही गई। बहुत कुछ ख़त्म हो जाने के फ़िर तैयार हुए। इसी महामारी के छ: बरस बाद 1926 में अरपा किनारे गोंडपारा के सुब्हान साहब ने हौसला जुटाया और एक स्कूल की नींव रखी। उनके दो ख़ास दोस्तों रघुवंश नाथ ठाकुर और अ.करीम ने भी साथ दिया। सदर बाज़ार में उस किराए के कमरे में जगह कम पड़ने लगी तो अपना घर दे दिया स्कूल के लिए। संस्थापक तो तीन ही थे सुब्हान साहब, रघुवंश नाथ ठाकुर और अब्दुल करीम। करीम कुछ समय बाद रायपुर चले गए।

वक्फ को रघुवंश नाथ ने ही सुझाव दिया कि स्कूल का नाम सुब्हान भाई की स्मृति में किया जाए। जिसे माना गया और सुब्हानिया अंजुमन इस्लामिया स्कूल नाम रखा गया। इसमें चलने लगी स्कूल। धुन के पक्के सुब्हान साहब जुटे रहे। उनका एक और घर मिलन मंदिर रोड़ पर भी था उसे भी स्कूल के नाम वक्फ़ कर दिया। उसे उस समय किराए पर दिया गया ताकि स्कूल को कुछ और आर्थिक मदद होती रहे। आज भी यह किराए पर ही है। ज़ाहिर है किराया तो नाम मात्र ही है। सुब्हान साहब के नाम पर बनी इस स्कूल ने और भी लोगों को प्रेरित किया। जूनी लाइन के हाजी मौला शाह ज़रा फकीराना तबीयत के थे। उन्होंने अपने तीनों मकान इसी सुब्हानिया अंजुमन इस्लामिया के नाम वक्फ़ कर दिए। तीनों भी किराए पर दे दिए गए। आज भी है और खाली कराने की कोशिश हो रही है। कोरोना को आज हम जान रहे हैं। सदर बाज़ार में एक करोना चौक हुआ करता था।

दरअसल चौक पर जहां आज एक दवा दुकान है वहीं करोना कंपनी के जूतों की दूकान दी। उन दिनों बाटा के बाद करोना कंपनी भी जूते चप्पल बनाया करती। इसी दूकान के कारण यह करोना चौक कहलाता। यह दुकान भी सुब्हान साहब के घर का ही हिस्सा थी। वक्फ़ ने आज दवा दुकान के लिए किराए पर दिया है।

 कोविड 19 से जूझने आज हम सब अरपापारी जुटे हुए हैं। एक-दूसरे की मदद भी कर रहे हैं। लेकिन सुब्हान साहब जैसा हौसला कितनों के पास है ? एक व्यक्ति की दीवानगी, जुनून या धुन कहें कि शिक्षा की अलख जग रही है। तब ही तो बरसों पहले ईदगाह भी इसी सुब्हानिया अंजुमन इस्लामिया की देखरेख के लिए कर दिया गया। ब्रिटिश राज की इस्ट इंडिया कंपनी में एक फ़ौजी हुए इमामुद्दीन। रिटायर हुए। कंपनी ने करीब 65 हज़ार वर्गफुट ज़मीन दी। बात 1828 की है। यहीं उन्होंने ईदगाह बनवाया। आज वह भी सुब्हानिया अंजुमन इस्लामिया के पास है। वहां एक व्यवसायिक काम्पलैक्स बनाने की योजना है ट्रस्ट की।

योजना तो तीस पैंतीस बरस पुरानी है। देखें कब तक बनता है। इसी वक्फ़ ने मौलाना आज़ाद कालेज आफ एजुकेशन के नाम से बीएड कालेज भी शुरू किया पंद्रह बरस पहले। इसके अध्यक्ष इन दिनों एडवोकेट और समाजसेवी काजी सलीम है। बरसों पहले बने सुब्हानिया अंजुमन इस्लामिया के पहले अध्यक्ष बशीर अहमद कुरैशी हुए और सचिव बने एडवोकेट काजी ग़यासुद्दीन अंसारी। अंसारी साहब के जी अंसारी के नाम से ही प्रसिद्ध रहे। वे आजीवन सचिव रहे। अध्यक्ष नज़ीर कुरैशी , हाजी अब्दुल खान,डाॅ रियाजुद्दीन, प्रो.सईद खान, प्रो. एम एस के खोखर आदि रहे। आज रिटायर्ड जस्टिस मिन्हाजुद्दीन साहब अध्यक्ष है और पूर्व कुलसचिव एम एस के खोखर सचिव हैं।

 किसी एक व्यक्ति को निमित्त बनाता है अरपा का पानी। और फ़िर उससे जुटते चली जाती है अनेक लहरें। बहता पानी निर्मला की तरह सुब्हान साहब की उस धारा को बहा रहे हैं हम बिलासपुर के लोग। आज ऑनलाइन पढ़ रहे हैं बच्चे क्योंकि कोविड 19 निकलने नहीं दे रहा है। उन दिनों ऐसा कुछ नहीं था फ़िर भी बेटियां कहां पढ़ पाती थी। सुब्हान साहब की सोच को पंख दिए के जी अंसारी साहब और उनके साथियों ने। बारहवीं तक की यह स्कूल आज सभी की शिक्षा के लिए है , सिर्फ़ मुस्लिम लड़कियों के लिए ही नहीं है। बीएड कालेज भवन भी ईदगाह चौक के पास बनने वाला है। बहती अरपा को हमारी अनदेखी ने भले ही ऊपरी तौर पर सुखा दिया है पर वह भीतर बह रही है। बिल्कुल पास गोंडपारा में भी फ़िलहाल सब बंद है पर शिक्षा की धारा बह रही है। सुब्हान साहब की आंखें देख रही है कहीं से।

–लेखक देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।

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