लेखक की कलम से
उलझनें …
जीवन की उलझनों में
उलझे हम….
ठीक वैसे ही जैसे नसें खोई
देह पिंड में ….
भाव-बिभाव में,कल्पनाओं में,
चिंताओं में उलझता मानव मन….
गणित के अनसुलझे सवालों में…
भीषण झाझाबातों में,
धूल में,हवा में,
वेगों में,आवेगों में!
जैसे भावाकाश में,
गहन-मनन साधना में खो
जाता है कोई…
जैसे पयोधि के कक्ष में सम्मिश्रित
होते असंख्य लहरें स्वयं में
उलझे रहतें….
जैसे अंतरिक्ष में उलझे अनगिनत
गुमनाम ग्रह-उपग्रह
निरंतर भ्रमण करते पर उलझें …
जैसे हिमाच्छादित पर्वत श्रृंखलाएँ मौलिकता,विशेषताओं को समेटे
हिमखंडों में उलझे ….
हमसब उलझे,
अनर्गल जिज्ञासाओं में!
जिसकी संपूर्ति एकमात्र
“अज्ञात” ही कर सकता….
ज्ञात नहीं न तुम्हें?
©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता