लेखक की कलम से
विरह की अग्नि …
सब्र का सुराग मेरी पलकों पे लिपट गया था
सूरज जमीन पर कब्जा कर सिमट गया था
मेरी मदभरी पलकों में एक ख़्वाब उतर गया था
एहसासों के समुद्र में एक पत्थर फेंका तो छिंटा उड़ गया था
हर्षी +सीता की तरह मुस्कराहट देता आजमा कर सहन कर गया था
ये सुहर सी अंतराल के बाद निकलती उजाले बन गया था
उफ बरामत हुआ मेरा मन का हाल जानें किस जहां का बन गया था
कोसी सी ज़िन्दगी उबालें मांग कर फिर छलांग लगाने को कह गया था
ये सफ़र सुबह से रात भर राख होता दिन बन गया था
विरह की अग्नि में विराम का अंतर तक हलक से निगल गया था …
© हर्षिता दावर, नई दिल्ली