बिलासपुर

इस सन्नाटे में बुहारी की आवाज़ …

✍■ नथमल शर्मा

अपने सूनसान शहर में एक घर ऐसा भी है जिसमें एक नीम का वृक्ष करीब 150 वर्षों से है। अब वह बहुत बुजुर्ग हो गया है। फिर भी अपनी पत्तियां दे रहा है। कभी लखनलाल इन्हीं पत्तियों को चबा कर दिन की शुरुआत करते थे। इसके ही दातौन को लेकर निकल पड़ते थे अपने इस प्यारे शहर को साफ़ करने। उनके साथ ही बुहारते थे और भी उनके अपने साथी, रिश्तेदार। कुंजबिहारी लाल अग्निहोत्री, देवी प्रसाद वर्मा फिर डॉ. श्रीधर मिश्र तक का ज़माना देखा था उन्होंने। कहीं से गंदा न दिखे मेरा बिलासपुर, यही सोचते और न केवल सोचते बल्कि पूरी लगन से बुहारते भी। हमें साफ़ रखने के लिए खुद गंदे होते। ऐसे हमारे ये सुदर्शन साथी।

जूना बिलासपुर के उस घर में खड़ा वह बूढ़ा नीम देख रहा है सब। उसने लखनलाल के पिता को भी इसी तरह देखा। इस शहर को साफ़ करते रहे वे सब और उनके सब साथी। आज जब कोविड 19 के भय से हर कोई अपने घर में हैं तब भी शहर गंदा नहीं हो रहा है। अस्पतालों में सफ़ाई है। (साहबों के बंगलों में भी) तो ये सब जुटे हैं अपने कठिन कर्म में। हमारी गंदगी साफ़ करते ये सबसे शुद्ध लोग बरसों से हाशिये पर ही तो रहे। अरपा के पानी में नहा कर उन दिनों साफ़ नहीं हो पाते थे। आज तो ये सुदर्शन समाज है। लखनलाल समुद्रे अपने समाज के चौधरी रहे। उनके पिता भी। फिर करीब 50 बरस पहले पहली बार समाज का चुनाव हुआ। उन्हीं के एक साथी बाबू लाल बने अध्यक्ष। लखनलाल समुद्रे, एक ऐसा नाम जो शहर की फ़िजा में सिर्फ बुहारने के लिए ही नहीं जाना जाता था। वे अच्छे शायर भी रहे। और महफ़िलों में अपने शेर पढ़ते रहे। बुहारते रहे अपने शहर को अपनी शायरी से भी।

कोविड 19 से सूनसान हुए अरपा के इस बिलासपुर में मंदिर, मस्जिद, गुरूद्वारे, गिरजाघर सब बंद है।  हर कोई अपने घर में। ज्यादातर को बाहर न निकल पाने का मलाल है। वे सब अपने व्हाट्सएप पर मिल रहे हैं अपनों से। उन्हें वैसी चिंता नहीं है कि कमाएंगे नहीं तो खाएंगे क्या। जिन घरों में ये चिंता हैं उनमें अक्सर काम पर न जाने वाले पिता की आंखें नम हो जाती है जब रसोई के खाली बर्तनों की तरफ देखता है वो। फ़िर भी जान है तो जहान है सोच कर, जरा संतोष कर वह घर में ही है। ऐसे सूनसान शहर में सबेरे बुहारते हैं वे सड़कों को। गलियों, मोहल्लों को। कालोनियों को। अपने साहबों के बंगलों को। ये सब सफ़ाई कर्मचारी जुटे हैं कि हम जीवित रहें। हमारे घरों तक गंदगी न पसरे। हम जब तक सोकर उठते हैं तब तक ये साफ़ कर चुके होते हैं शहर को।

अपने घरों का सारा कचरा अब तो हरी नीली बाल्टियों में इन्हें सौंप देते हैं हम। कभी इनके पुरखों ने अपने सर पर मैला भी उठाया था और हमारी ही गंदगी को साफ़ करने वाले ये अछूत कहलाने का दंश झेलते रहे। अब बीते समय की बात हो जाने के बावजूद अपने मित्रों की सूची को ज़रा टटोलकर देखें कि कितने सुदर्शन दोस्त हैं। किसी ज्ञानी की बताई बात तो याद रखते हैं कि सबेरे इनको देख लें तो अच्छा शगुन होता है। पर इन्हें देखते ही तो हैं। इनका सम्मान करना अब तक शायद सीख नहीं पाए। पहले नगर पालिका और फिर नगर निगम बनते तक भी अपनी अरपा के ये सफाईकर्मी अपने हक के लिए तरसते ही रहे। इन्हीं के एक साथी हुए कांशीराम कोरसिया। जिन्हें सम्मान से सब कांशीराम जी ही कहते रहे। (बसपा के कांशीराम के बहुत पहले की बात है ये)। मुझसे जब भी मिले कांशीराम जी अपने हाथ में एक मुड़ा- तुड़ा कागज़ लेकर मिले। वह प्रेस विज्ञप्ति होती जो अपने सफ़ाई कर्मचारी साथियों के हक के लिए कोई मांग लिए होती। मुझ पर स्नेह भी रहता उनका। इसी स्नेहिल अधिकार से कहता कि ज़रा बिना इतना मोड़े लाया करो ना। फिर तो वे टाइप करवाकर और बहुत अच्छे से लाते। आज नगर निगम के सफ़ाई कर्मचारियों को जो भी सुविधाएं मिली है वह कांशीराम जी के संघर्ष का ही परिणाम है।

82 बरस के हो गए हैं वे पर आज भी ललक वही कि सफ़ाई कर्मचारियों की तकलीफें कैसे दूर हो। दरअसल मॉल, भव्य बाज़ार, चौड़ी सड़कें, चौराहों पर मूर्तियां लगवाने और चमकदार आलीशान कालोनियां बनवाने को ही विकास मानते रहे हम। इसी में व्यस्त रहे और इसी बीच छह बरस पहले सरकार ने सफाई कर्मियों का पद ही समाप्त कर दिया। जो हैं उनके सेवानिवृत्त हो जाने के बाद नई भर्ती नहीं की। सारा काम निजि हाथों में। नए सफ़ाई ठेकेदार आ गए जो पांच- सात हजार रुपए महीने में रखते हैं। आज के स्थायी सफ़ाई कर्मचारी को 30-35 हजार रुपए महीना मिलता है। पीएफ और बाकी सुविधाएं भी। हम सब विकास में खोए हुए हैं और समाज का एक बेहद महत्वपूर्ण हिस्सा अपनी ज़िंदगी को तरस रहा है। कोविड 19 से जूझ रहे सूनसान शहर में कोई नहीं सुन रहा उनकी बात। ये तो अभी की बात हुई पर सौ से ज्यादा अनुकंपा नियुक्तियों के ही मामले बरसों से लंबित पड़े हैं। उन्हीं अफसरों की फाइलों में जिनकी कलम से तुरंत ही करोडों के टेंडर पास हो जाते हैं। उनकी कलम में इनके लिए स्याही नहीं। नेताओं को तो सुनना सबकी है पर मानना अफसरों की ही है, थैलियां तो व्हाया अफसर ही आती है। अरपा भी सब देख रही है। अपने इन बेटों के आंसू। बरसों पहले केंद्रीय मंत्री बाबू जगजीवन राम आए थे यहां। उन्होंने भी सुनी थी इनकी। कहते हैं आज का बापू उपनगर जहां ज्यादातर सफ़ाई साथी रहते हैं वह नाम भी उन्ही दिनों रखा गया था।

अपने सूनसान शहर में बहुत कुछ बदलते रहा कोविड 19 के पहले तक। अभी तो रफ़्तार थम गई है, क्योंकि इलाज़ ही वही है। सूने शहर के सन्नाटे के बीच बुहार रहे हैं ये सड़कों को। खुद किसी वायरस से लड़ते हुए बचा रहे हैं हमें विषाणुओं से। इनके चेहरे पर मास्क और हाथों में ग्लब्स है क्या ? अपने इन सफ़ाई साथियों को सेनिटाइजर कैसे दें ? हमें ही नहीं मिल रहा कहते हुए एक समाजसेवी ने मोबाइल ऑफ कर दिया। बाहर आ रही है सफ़ाई गाड़ी में बजते गीत की आवाज़। घरों में नाश्ता (नहीं ब्रेकफास्ट) बन गया है। रामायण, महाभारत देखते हुए कल सबेरे तक भरते रहेंगे नीली हरी बाल्टियों को हम। नहीं देख पाएंगे बुहारते हुए सफ़ाई साथियों की उन नम आंखों को जिनमें सपनों के मर जाने की आहट भी है।

–लेखक देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।

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