लेखक की कलम से
गीत …
न जाने क्यूं हिंदू मुस्लिम में बंट जाते हैं
ज़मीन एक है नामों निशा मिट जाते हैं
न जाने क्यूं हिंदू मुस्लिम में बंट जाते हैं
बनावट एक ही जैसी है फर्क नहीं कोई
रिश्ते भी एक ही जैसे है तर्क नहीं कोई
फिर भी लोग आपस में ही मिट जाते हैं
न जाने क्यूं हिंदू मुस्लिम में बंट जाते हैं
कभी दोनों एक आंगन में रह लेते थे
बिना दीवार के ही पड़ोस सह लेते थे
एक दूजे के गमों को समझते थे बहुत
दिलों का हाल भी आपस में कह लेते थे
मदद करने से भी पीछे अब हट जाते हैं
न जाने क्यूं हिंदू मुस्लिम में बंट जाते हैं
कभी त्योहारों में भी ऐसा हाल होता था
तुम मनाते थे ईद मुझपे गुलाल होता था
दोस्ती पक्की गहरी बेमिसाल होती थी
अंगोछा मेरा और तेरा रूमाल होता था
अब हर बात में आपस में लिपट जाते हैं
न जाने क्यूं हिंदू मुस्लिम में बंट जाते हैं …
©खुशनुमा हयात, बुलंदशहर उत्तर प्रदेश