लेखक की कलम से

मज़लूम औरत

अब न कोई सपना उसके जर्जर दरवाजे पर
देता दस्तक
राहे जिंदगी की पथरीली
हुई थक कर चूर चूर
वह अभागन औरत

थरथर कांपा नदिया का जल
उसके अश्रु ओं संग
हो गया खारा
पीत वसन पहन __ थे पात
उसके दुख में शामिल
झर2 झर चलेआसुओं संग

हर रात लुटाती रही अपने अन्ना
पुकारती रही अर्श के
फरिश्तों को

अब — अब कहे किससे अपनी दुख़द गाथा ??
वह मजलूम औरत
मज़लूम औरत????

© मीरा हिंगोरानी, नई दिल्ली

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