लेखक की कलम से

मजदूर …

हम मेहनतकश मजदूर!

दिन-रात की मशक्कत कर,

परिश्रम से पारिश्रमिक पा रहे!

हमने सजाया जिंदगी को स्वर्ण से!

हमने बनाया सफर को सहज सा!

हमने गंगा को पथ दिखलाया!

सर-सरोवर से उपवन तक महकाया!

हमने दीप-लैंप से पांच सितारों तक चमकाया!

पगडंडी से हाइवे तक बनाया!

मकान से मल्टीप्लेक्स तक बनाया!

पुल से मल्टी-वे ब्रिज तक बनाया!

कल-कारखानों की नींव तक जगाया!

द्वीप-महाद्वीप पर जीवन बसाया!

ज्ञान-विज्ञान की श्रृंखला सजाया!

बंजर को उर्वर हमने बनाया!

शहरों-महाशहरों में धड़कन धड़काया!

जीवन को जीवन सा हमने बनाया!

पर..

खुद की नियति को हमने ना सजाया!

तिरस्कृत,असहाय,भगेडू कहलाया..

अपने लिए दो गज जमीन,

दो जून रोटी तक न पाया।

विधाता की हम लीला निराली

बरसाते जहां को,

पर खुद उजड़ते खाली….

©अल्पना सिंह, शिक्षिका, कोलकाता                           

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