लेखक की कलम से

समझदारी बस अपनेपन की….

 

सब समझ आता है मुझे, तुम्हारे गुस्से का राज़, तुम्हारा लिखा हुआ हर पन्ने पर नजदीकियों का एहसास.. हां सब समझ आता है मुझे।

तुम्हारे डाटने के पीछे का प्यार, आंखों से छलके उस मोती की बात.. हां सब समझ आता है मुझे।

दूसरों से छुपाया हुआ पर खुद के अंदर सिमटा हुआ एक अनजान सा डर.. हां सब समझ आता है मुझे।

इक तकिए में छुपाए हुए उन अश्कों को जो बिना कोई गलती के मिले और उन्हें सहन किया है तुमने.. हां सब समझ आता है मुझे।

बेबस और लाचार सा होकर पर खुद में कहीं न कहीं खोया हुआ वो शख्स जो दूसरों की खुशी के लिए अपनी खुशी खो बैठा है.. हां सब समझ आता है मुझे।

जैसे बारिश की बूंदों से भरा हुआ तलाब, उसी तरह क्रोध की अग्नि में जलता हुआ तुम्हारा मन पर फिर उसी पानी की तरह बहता हुआ तुम्हारा क्रोध भी.. हां सब समझ आता है मुझे।

समझदारी बस अपनेपन की जो है, तभी शायद सभी से नजदीकियां भी तुमने बना रखी है, इसी समझदारी के साथ सभी के चहरों पर एक मुस्कान जो लाते हो फिर खुद भी उसी में ढल जाते हो.. हां हां सब कुछ समझ आता है मुझे।….

 

©सुरभि शर्मा, शिवपुरी, मध्य प्रदेश                                              
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