बस यही तेरी औकात …
वाह रे इन्सान बस यही तेरी औकात ,
तब तक थी कीमत तेरी जब तक तेरी सांसे थी ।
था एक अनमोल हीरा जब तक तू ज़िन्दा था ,
खत्म हुई सांसें तो रहा ना दौ कोड़ी का तू ।
पूछते हैं सब, कब लेकर के जाना है इसको ,
कितनी देर और रखना होगा ,
करता तब तक चाय-पानी भी नहीं पीएंगे ,
अरे जाने वाला तो चला गया
अब खुद को भी हम मारेंगे क्या
चूल्हा क्यों ना जलाए घर में ,
भरने वाले ने मना किया है क्या ।
पूछता है कोई इसका बीमा भी कराया था ??
कहता कोई ज़मीन- जायदाद की सब वसीयत तो कर गया है ना
वरना काटने पड़ेंगे खूब कोर्ट-कचहरी के चक्कर भी ।
ग़र किया नहीं वसीयत का काम पूरा तो
भाईयों में हो जाती ज्यादा हिस्सा लेने की होड़ ।
लाश पड़ी है घर में जल्दी करें ले जाने की
बच्चे हमारे डर जाएंगे ।
जो खेलते थे कल तक जो गोद में दादा- दादी की ,
चढ़ते थे जिनके कंधों पर , आज उन्हीं के पास जाने
से रोका जाता है वाह रे इन्सान कैसा ये तेरा नाता है ।
फूंक कर के लाश को घर आकर के नहाए-धोए
मानों कहीं कोई छूत की बीमारी ना लग जाए ,
जब तक थे ज़िन्दा तो कोई परहेज़ ना था ,
क्योंकि सब कुछ था उनके हाथ में ,
नहीं सौंपा था बच्चों को अभी कोई मकान-ज़मीन ,
अब तो मिल गया सब कुछ उनको ।
नहाया-धोया , खाया खाना , ठहाके सब खूब लगाते हैं ।
जब हो जाता जीवन में कुछ उल्टा -सीधा तो
करते पितरों से माफी की फरियाद,
वरना कौन किसको करता है याद ,
वाह रे इन्सान बस इतनी तेरी औकात………
©प्रेम बजाज, यमुनानगर