लेखक की कलम से

वो और रसोई …

 

 

वह खाना बनाती है

सुबह का नाश्ता

दोपहर का खाना

रात का भोजन

वह खाना बनाती है।

 

वह खाना बनाती है

शुद्ध और स्वादिष्ट

समय – समय पर

अनाज – सामान हो

या न हो

वह खाना बनाती है।

 

बेटे की पसंद

बेटी की न पसंद

पति की चाहत

सब कुछ याद रख कर

वह खाना बनाती है।

 

त्योहारों के दिन हो

या मेहमान आये हो

ज्यादा से ज्यादा नमूनों का

ज्यादा से ज्यादा खाना

ज्यादा से ज्यादा स्वादिष्ट

कम से कम समय में

वह बना देती है।

 

वह खाना बनाती है

कोई किसी जल्दी में

रसोई की तारीफ़ न करें

या किसी परेशानी में

खाने मे कंकड़ ढूंढें

फिरभी हंसते मुस्कुराते

वह खाना बनाती है।

 

हर दिन सब के बाद ही

खाने पे बैठना पड़ता है

कभी कभी कल का बचा

बासी खाना खाना पड़ता है

एक निवाला मुंह में डाला नहीं,

कोई उठा देता है

किसी काम का याद दिला कर

ऐसी चीजों को

ज़हन में कभी न रखते हुए

वह खाना बनाती है।

 

छुट्टीयों का नाम उसने

न कभी सुना है, न कभी देखा है

वह खाना बनाती है

कल भी, आज भी और आगे भी

वह खाना बनाती रहती है।

 

एक सुदीर्घ तपस्या के तरह वह

रसोई के बारेमें ही सोचती है

रसोई के बारेमें ही पढ़ती है

टीवी पर रसोई के कार्यक्रम ही देखती है

सब सीखती है

सब बनाकर परोसती है।

 

खाना बनाती है वह

तंदुरुस्त हो या बीमार हो

साँस रुकने तक

वह खाना बनाती है

“तुम भी वक्त पर खाया-पीया करो”

यह भूलकर भी कभी न पूछता वो

ऐसे शख्स के लिए

वह खाना बनाती है।

 

©मीरा मेघमाला, कर्नाटक

परिचय:- मैसूर यूनिवर्सिटी से एमए, कन्नड़ और कोंकर्णीं में भी लिखतीं हैं। कर्नाटक में महिला बाल विकास विभाग में कार्यतर

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