लेखक की कलम से

संस्कृत यदि राष्ट्रभाषा होती तो ….

जब सांसद डा. भीमराव अंबेडकर तथा प्रोफेसर नाजिरूद्दीन अहमद ने संस्कृत को राष्ट्रभाषा बनाने का सुझाव संविधान सभा में (14 सितम्बर 1949) दिया था, तो उनका एक खास तर्क था। ऐसा दर्जा पाने की पात्रता भारतीय भाषाओं की माँ में ही हो सकती। पश्चिम बंगाल से निर्वाचित दलित और मुस्लिम लीग के इन केन्द्रीय विधायकों के जेहन में कदाचित एक अंदेशा था कि नवस्वतंत्र भारत का मजहब की भांति भाषा के नाम पर फिर बंटवारा कहीं न हो जाये। भौगोलिक न सही, वैचारिक विभाजन तो होता रहा है। अभिव्यक्ति का माध्यम कम, भाषा आज राजनीतिक लोई के लिए परथन बन गयी है। अतः इसी सिलसिले में केन्द्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा गत सहस्राब्दि साल को ‘संस्कृत वर्ष’ घोषित करना खुद में एक युगान्तकारी पहल थी।

भगवद्गीता के कालखण्ड तक इस सारे जम्बू द्वीप को संस्कृत ने एक सूत्र में पिरोया था। उसके बाद माघ पूर्णिमा से प्रारम्भ इस चौथे युग की बावनवी सदी में देवभाषा को जमीनी यथार्थ से जोड़ने का ऐसे प्रयास इतिहास ने बनाया। ‘आशा है कि संस्कृत को सम्मान देना ही सुदृढ़ राष्ट्र को निर्मित करेगा। हां, एक उलाहना लोग देते हैं कि संस्कृत मृत भाषा है। आमजन से दूर है। इसी उपालंभ को तमिलनाडु की द्रविड़ मुन्नेत्र कषगम सरकार ने (नवम्बर, 1997) चेन्नई उच्च न्यायालय में अपनी प्रतियाचिका में दिया था, जिस पर न्यायमूर्ति का निर्णय 2 जनवरी 1999 को आया था। अदालत ने कहा कि संस्कृत जीवन्त भाषा है। इसे मृत इस आधार पर नहीं कहा जा सकता कि यह बोलचाल की भाषा नहीं है।

कोर्ट का तर्क वाजिब है, क्योंकि अंग्रेजी से कई गुना अधिक संस्कृत जानने वाले लोग भारत में हैं। यदि 1861 में हुई प्रथम जनसंख्या गणना के आंकड़े देखें तो हिन्दी तथा उत्तर क्षेत्र में लोगों ने अपनी मातृभाषा संस्कृत बतायी थी। भले ही तब आर्य समाज का प्रभाव रहा हो। तब बहुसंख्यक उत्तर भारतीय खड़ी बोली का प्रयोग करते थे। यथार्थ यही है कि संस्कृति को संवारने और समृद्ध करने का संस्कृत एक नायाब माध्यम है जिसके कारण वैभिन्य और विषमता के बावजूद यह देवभाषा दक्षिणावर्त और आर्यावर्त की साझी विरासत को संजोये हुए हैं। मूलतः यही कारण था जब पुनर्निमित राष्ट्र इस्राइल ने सत्रह सदियों से न बोली गयी यहूदी भाषा इरबानी (हीब्रयू) को फिर से खोजकर राष्ट्रभाषा के रूप में पोसा, अपनाया। इस्राइली संसद ने भाषा अकादमी गठित कर विशेषज्ञों को नये शब्द गढ़ने, नयी शैली रचने और इरबानी भाषा को आधुनिक अभिव्यक्ति का साधन बनाने का निर्देश दिया था। शिलालेखों में समाहित, ग्रंथों में बंधी हुई यह इरबानी भाषा आज इस्राइल की लोकभाषा बन गयी है। यह वैसे ही था जैसे उद्गम स्थल पर मात्र स्रोता बना हुआ जल एक प्रपात का निनाद अपने में समेटे, शिलाओं को विदीर्ण करते, महानदी का विशाल आकार ले लेता है।

तुलनात्मक नजरिये में संस्कृत कभी भी सीमित दायरे में नहीं थी। जन्म से निधन तक आमजन की सभी क्रियाओं का अभिन्न हिस्सा संस्कृत रही। उपासना स्थलों में तो वह सदा गूंजती रही। अतः उसके केवल लोकोन्मुखी, जनोपदायी पहलुओं को यदि उजागर हों, तो वह नयी सदी के भारत का रूप बदल सकती है, नवीन आयाम दे सकती है। इस भाषा के माध्यम से भारत राष्ट्र-राज्य को सही अर्थों में पुनः खोजा जा सकता है। संस्कृति की सरिता के स्रोतों को सूखने से रोका जा सकता है।

संस्कृत अध्ययन को दो आधुनिक आवश्यकताओं से जोड़ने का काम बिना देर शुरू करना होगा। प्रबंधन (मैनेजमेंट) और पर्यावरण के क्षेत्र में संस्कृत के अध्ययन से गुणात्मक सुधार तथा विशिष्टता आ सकती है। जैसे कई प्रबंधन संस्थान (इंस्टीट्यूट आफ मैनेजमेंट) अपने शिक्षार्थियों को औद्योगिक विकास से जनित तनाव से बचने तथा कार्य उत्कृष्टता बढ़ाने के लिये ‘विपासना ध्यान’ क्रिया सिखाते है। पड़ोसी म्यांमार (बर्मा) के बौद्धों द्वारा विकसित इस ‘विपासना ध्यान’ प्रक्रिया से लाभ दिखा है। अब भारत के आर्थिक आकार को संवारने वाले इन प्रबंधन-छात्रों के सामने संस्कृत के तिलस्मी फाटक खुलने चाहिए।

आज की वैश्विक मंदी के चलते, श्रम सम्बन्धों से, उत्पाद की मांग की घटबढ़ से, बाजार अर्थनीति की बनती-बिगड़ती प्रवत्ति से, इन प्रबंधकों के चित्त में क्लेश होना स्वाभाविक है। योगसूत्र ने क्लेश की किस्में निरूपित की हैं कि वह अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष तथा अभिनिवेश है। क्लेश से व्यक्ति विक्षिप्त रहता है। योग के अभ्यास से वह क्लेश से मुक्ति पा जाता है। आधुनिक प्रबंधन के नीति-निर्देशक नियमों को भारत में सदियों पूर्व बताया गया था कि ”योग: ‘कर्मसु कौशलम्।“ अपने निजी और कार्यकारी जीवन में क्षमता पैदा करने, दक्षता हासिल करने और कौशल दर्शाने के लिये प्रबंधन संस्थान प्रेरित करते हैं। एक चुम्बकीय अदा उनकी व्याख्यान शैली में होती है।

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©के. विक्रम राव, नई दिल्ली                                           

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