लेखक की कलम से

स्त्री : कल से आज तक …

 

 

प्राचीन काल से ही स्त्री की भूमिका और कर्तव्य निश्चित कर दिए गए थे। वह घर में रहती थी और घर के काम काज को संभालती थी जैसे साफ सफाई, खाना बनाना,  मवेशियों की देखभाल,  खेती के काम, बच्चों को संभालना पालना.. इत्यादि कुछ कार्यों का उत्तरदायित्व उसको सौंपा गया। वह इसे अपनी नियति बनाकर सम्पूर्ण लगन से करती आयी। बच्चों को अच्छी परवरिश देना और घर को संभालना उसके जीवन का जैसे उद्देश्य रहा।

बाद में कुछ शब्दों के शिल्पकारों ने उसे गृह स्वामिनी का विशेषण दे दिया। और उस गृह स्वामिनी ने इसका औचित्य भी सिद्ध किया।

पुरुष बाहर की जिम्मेदारी उठाते रहे और स्त्री घर की..।  दोनों गृहस्थी की गाड़ी को मिल बाँट कर चला रहे थे।

किन्तु समस्या का जन्म वहां से हुआ, जब स्त्री का शोषण शुरू हुआ। एक पहिये को कमजोर करने की कवायद शुरू हुई। कहीं ना कहीं इसमें हमारे समाज की पितृसत्तात्मकता का योगदान था, क्योंकि पुरुष ने अपनी सुविधा और अहं की तुष्टि के लिए शनैः -शनैः स्त्री से बराबरी का हक़ छीनना शुरू कर दिया। उसपर सती प्रथा, बाल विवाह, पर्दा प्रथा, अशिक्षा जैसी कुरीतियों का शिकंजा कस दिया गया। वह पूर्णतः पुरुष की भोग्या एवं दासी बन गयी।

यहाँ यह ध्यान देने योग्य बात है कि वैदिक काल में इनका प्रचलन नहीं था। हमारे शास्त्रों में इनका उल्लेख नहीं हैं, अपितु स्त्री को सम्माननीय और पूजनीय माना गया है। उसकी शिक्षा दीक्षा का समुचित प्रबंध होता था। गार्गी,  मैत्रेयी,अपाला, आत्रेयी, लोपमुद्रा जैसी विदुषियाँ आज भी

अपना विशिष्ट स्थान रखतीं हैं।

किन्तु आगे जाकर उससे पढ़ने का अधिकार छीनकर उसे मात्र चौका चूल्हे तक ही सीमित कर दिया गया। कुछ समाजों में तो स्त्री की तुलना पालतू जानवर से भी की जाने लगी। तुलसी दास जी की इस पंक्ति से सदैव मुझे शिकायत रही है :

“ढोर, गँवार, शूद्र, पशु, नारी; सकल ताड़ना के अधिकारी।”

मैं इससे कभी सहमत हो नहीं पायी। क्या यह मात्र वर्चस्व स्थापना के लिए नहीं था?? और इसके लिए एक सम्पूर्ण समूह के अस्तित्व को ही दांव पर लगा दिया गया।

जब भी इसके विरोध में आवाज़ें उठीं, उन्हें तुरंत कुचल दिया गया। कभी कुछ प्रलोभन, तो कभी धमकियां, तो कभी प्रेम से विवश करके उसे घर के खूंटे से बांधकर रखा गया। हाँ यदा- कदा कुछ ऐसे अपवाद उभर कर आते रहे जिन्होंने ना सिर्फ स्त्री जाति, वरन सम्पूर्ण समाज को गौरवान्वित किया जैसे रानी लक्ष्मीबाई, झलकारी बाई,सावित्री बाई फुले, विजयलक्ष्मी पंडित, दुर्गा भाभी,  बेगम हजरत महल, कनकलता बरुआ, सरोजनी नायडू,  रानी चेनम्मा, सुचेता कृपलानी जैसे अनेकों नाम इस सूची में हैं। ये वो स्त्रियां थीं जिन्होंने समाज के बनाये नियमों को  ध्वस्त करके आगामी पीढ़ी के लिए पथ प्रशस्त किया।

 

युग बदला.. तो युग के रीति रिवाजों को भी बदलना था।

यह वो संक्रांति का दौर था जिसमे विभिन्न कारणों (जैसे पाश्चात्य संस्कृति का आगमन, बुद्धिजीवी व समाजसेवी वर्ग के प्रयास, शिक्षा के प्रचार प्रसार आदि ) ने स्त्री के जीवन मे परिवर्तन लाना प्रारम्भ किया।

‘अबला जीवन हाय तुम्हारी यही कहानी ‘

गुप्त जी की ये पंक्तियाँ अब बेमानी होने लगीं , और यह सुखदता का एहसास देता है। अब उसने सबला बनने की ओर बेहद सधे कदमों से बढ़ना शुरू किया ।

उसने यह भी जाना कि घर की दहलीज के बाहर भी एक दुनिया है। दासता का भाव ही इतना भारी होता है कि इससे उबरना भी उतना आसान नहीं था। इसमें मात्र पुरुष ही नहीं, स्वयं स्त्री से भी चुनौतियाँ प्राप्त होने वाली थीं। परिवर्तन संसार का नियम अवश्य है किन्तु संसार आसानी से इसे स्वीकारता नहीं। आज युग के साथ परिदृश्य भी बदला है, स्त्री की भूमिका में भी परिवर्तन आये हैं। घर से लेकर बाहर की प्रत्येक जिम्मेदारी को वह निभा रही है। हर क्षेत्र में नित नई ऊंचाई छू रही है। कभी स्त्रियों के लिए वर्जित रहे क्षेत्रों में भी अपनी धाक जमा रही है। अंतरिक्ष, खेल, राजनीति, सिनेमा, सेना, प्रशासनिक सेवा आदि हर क्षेत्र में वह अपनी आभा बिखेर रही है।

आज उसकी पहुँच से मात्र कुछ उँगलियों पर गिने जा सकने लायक क्षेत्र बचे हैं। असंख्य नाम आज के दौर में प्रेरणास्रोत बने हैं.. लता मंगेशकर, मधुबाला, के.  मल्लेश्वरी, गुंजन सक्सेना, नीरजा भनोट, मैरीकॉम, सुषमा स्वराज, ऐश्वर्या रॉय, सायना नेहवाल, सानिया मिर्जा, गीता फोगाट, पी. वी. सिंधु, अरुंधति भट्टाचार्य, चंदा कोचर, टेसी थॉमस, अनुराधा टी. के., रितु करिधाल, मंगला मणि,  दीपा कर्माकर आदि कितने सारे नाम हैं ; जो नक्षत्र की भांति जगमगाते हुए नाम रोशन कर रहे हैं।

 

इस परिवर्तन के लिए बहुत उतार चढाव और संघर्ष बाकी थे, किंतु स्त्रीत्व की आत्मा कभी नहीं बदली। चाहे ऊपरी कलेवर बदला हो किंतु वह वास्तविकता में तो वह आज भी नहीं बदली।आज वह जीवन के हर आयाम तक पहुँच चुकी है, हर उपलब्धि को पा चुकी है, हर उदाहरण को सिद्ध कर चुकी है। समय या युग कोई भी हो, उसकी जिम्मेदारियों और महत्त्व में कमी नहीं होती। वह अपनी उपादेयता सदैव सिद्ध ही करती आयी है, और अस्तित्व का संघर्ष भी।

बेशक ! वह देवी स्वरूपा या पूज्या है, इसपर एकमत ना हो.. किंतु वह समाज की श्रेष्ठतम इकाई व हिस्सा है, अत्युत्तम जैविक सरंचना है.. इसपर शायद ही कोई असहमति बने।

©भारती शर्मा, मथुरा उत्तरप्रदेश  

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