लेखक की कलम से
बासी हो जाता है प्रेम…
एक अनचीन्हा हठ
ख़त्म कर देता है सम्बन्ध की ऊष्मा
मुस्कान की चादर हटाकर
अनावृत हुए होठ
अपनी तमाम दरारों के साथ
प्रतीक बन जाते हैं
संबंधों में आये सूखेपन का
ठहर जाती है मौसम की गति
गलतफहमियाँ सोख लेती हैं
भावनाओं का गीलापन
काठ हो जाता है हृदय
सूखे पत्ते सा मन
डोलता है निर्जीव हो
आँखें हृदयहीन हो
बदल लेती हैं रास्ता
परे हटा देतीं हैं कोरों पर रखा प्रेम
ढँक लेती हैं विस्मृतियों की चादर तले
मधुर स्मृतियों का एक-एक कतरा
फफूँद लगी ब्रेड सा
बासी हो जाता है प्रेम…
©सरस्वती मिश्र, कानपुर, उत्तरप्रदेश