लेखक की कलम से
‘मेरी बेटियाँ’…
मेरी बेटियाँ मेरी परछाईं, मेरे अस्तित्व का आधार हैं,
इनकी मुस्कानों से सज़ा मेरा घर-संसार है।
न ये हैं फूल-सी, न मैंने पाला है इन्हें नाजों से,
ताकि बचा सकें ये खुद को दुनिया के घटिया रिवाजों से।
मैं नहीं चाहती इन्हें दहेज के तराज़ू पर तौला जाए,
या फिर जीवन भर बेचारी बेसहाय बोला जाए।
मैं चाहती हूँ इन्हें अपने पैरों पर खड़ा करना,
और सिखाना चाहती हूँ जीवन की ऊहापोह से लड़ना।
चाहती हूँ ये तन और मन से इतनी मज़बूत बनें,
कि ग़लत हाथ तो क्या, ग़लत निगाह भी न इन्हें छू सकें।
मेरा मान-सम्मान, मेरा अभिमान हैं मेरी बेटियाँ,
मेरे क़तरे हुए पंखों की उड़ान हैं मेरी बेटियाँ।
आज जो चढ़ती हैं मेरे कंधों पर, कल यही मुझे कंधा देंगीं,
बेटों से कम नहीं हैं बेटियाँ, सारी दुनिया को दिखला देंगीं।
-स्वीटी सिंघल ‘सखी’, बैंगलोर, कर्नाटक, स्वरचित मौलिक रचना