लेखक की कलम से

बस कह न सका…

 

जब आँखे खोली मैंने पहली बार,

तेरी आँखे सुकून से बंद हो गई।

मेरा बचपन ज्यों-ज्यों बढ़ता रहा,

तूने बचपन को ओढ़ लिया।

मेरा समय तो आगे चलता रहा,

तूने अपनी घड़ी के काटों को पीछे मोड़ लिया।

थी अकेली तू कम लोग थे तेरे साथ,

फ़िर भी बड़े नाज़ो से तूने मुझे पाला था।

मेरे हाथों में हमेशा पकवानों से सजी थाली थी,

भले तेरे हाथ में कम निवाला था।

हमेशा तेरे प्यार का एहसास होता रहा…

लेकिन,

बस कह न सका… बस कह न सका..!

 

जब मैं बढ़ा मेरी ख्वाहिशें भी बढ़ी,

मेरी जरूरतें भी बढ़ती गई।

तू न हारी एक पल को भी,

कभी ख़ुद से तो कभी समाज से लड़ती गई।

 उस गांव से मुझे शहर भेजा तूने,

 इन धीमे कदमों को जिंदगी तेज दी।

मेरी राह के सारे कांटे तूने चुन लिए माँ,

और मुझे फ़ूलों की सेज दी।

जाते-जाते तेरा आशीष लेकर,

मैं उन ग़म के आँसुओं को पीता गया…

लेकिन,

बस कह न सका… बस कह न सका..!

©अमित साहू, नोएडा, दिल्ली

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