सुनो!
वह पुरुष होकर जन्मा था
उसे बुद्ध होना था
उसे दिखाये गये जीवन के ऐश्वर्य
उसे सुनाये गये प्रेम के गीत
उसे उलझाया गया
रूप यौवन के जाल में
बुन दी गई सुख की झिलमिल
रेशमी चादर उसकी आँखों के लिए
एक रात हवा चली
चादर में छोटा सा छेद हुआ
और भोर के झिरमिट में
देख लिया उसने
दुःख का रोगी वृद्ध शरीर
वो सुखों में डूबा काँप कर रह गया
उसे ढूँढनी थी मुक्ति की राह
वो वैरागी हो चला गया
जब लौटा तो बुद्ध होकर
जग ने स्वागत किया उसका
उसकी प्रशस्ति के गीत गाये।
मुझे भी होना था वैरागन
पर मैं स्त्री होकर जन्मी थी
मुझे दिखाये गये जीवन के कड़वे दुःख
मुझे सुनाये गये प्रेम के शोकगीत
मुझे उलझाया गया
स्त्री के कर्तव्यों के चक्रव्यूह में
बुन दी गई कभी न मिलने वाले अधिकारों की मोटी चादर मेरी दृष्टि पर
एक रात जोर की आँधी आई
और भोर के झिरमिट में
मुझे दीख गया सुख का
मृदुल श्यामल गात
और मैं सुख की चाह में छोड़ गई सब कुछ
मैं जब गई तो जोगन होकर लौटी
जग ने मुझे बेहया कहा
मेरे होंठों पर रख दिया गया विष का प्याला
आज भी मेरी जिह्वा पर उसका स्वाद मौजूद है।
वो बुद्ध था
मैं मीरा हूँ
हाँ मीरा हूँ मैं
जग आज मेरे रचे गीत गाता है
जो किसी की प्रशस्ति में नहीं
नहीं हैं किसी की प्रशस्ति में …..।
©रचना शास्त्री, बिजनौर, उत्तरप्रदेश