लेखक की कलम से

मैं ठहरा रहा ज़मी चलने लगी …

ज़मीन से जुडे लोग अब अपने अपने गांव लौटने लगे हैं, अपनों के पास। आज बात उनकी करूंगी जो बिसात के अगले मोहरे हैं, जिनकी सारी पूंजी महानगरीय जीवन और करोंड़ों का फ्लैट, गगनचुंबी इमारतों में जहां जमीन भी अपनी नहीं और आसमान तो खैर जाने ही दीजिये…

           “ये तेरा घर, ये मेरा घर” का सपना संजोये कितने ही परिवार हैं जिनके पास अपना कहने के लिए सिर्फ एक फ्लैट है। गांव से रिश्ता टूटा तो एसा कि दूरीयां बढ़ती ही चली गई। न रिश्ते बचे और न बाट जोहने वाला कोई अपना।

            सुप्रसिद्ध मनोवैज्ञानिक मास्लो के प्रयोग ने यह साबित किया कि बहुत से फल और अनाज से भरे पिंजरे में रहने वाला बंदर का बच्चा और मां के साथ आभावों में रहने वाले बच्चे में ज्यादा स्वस्थ और खुश मां के साथ रहने वाला बच्चा था। प्रयोग ये साबित करता है कि जिंदा रहने के लिए केवल भोजन ही काफी नहीं है, आपके अपनों की आंखों में वो चाहत भी होनी चाहिए।

           इस महामारी ने हमें बखूबी समझा दिया है कि अपने अपनों से टूटे संवाद को जोड़ना होगा। संबंधों को फिर सींचना होगा। मौजूदा सभ्यता के समीकरण को बदलना होगा। क्योंकि सभ्यतायें खत्म होती हैं, मनुष्य और मनुष्यता नहीं।

©वैशाली सोनवलकर, मुंबई

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