मैं इस युग का आह्वान हूँ …
मैं किसान हूँ,
अपने अस्तित्व को ,
लेकर परेशान हूँ।
मैंने अपनी हल से,
अनेक सवालों को,
सुलझाया है।
पर कौन है वह ,
जिसने मुझे उलझाया है।
आखिर आज क्यूँ ,
मैं बेबस और हलाकान हूँ—
बन्जर जमीन को जोतकर,
रातदिन फसल उगाता हूँ।
प्यासे कंठ को पानी और,
भूखे को अन्न खिलाता हूँ।
मेरे अस्तित्व को लेकर,
कर रहे सब पड़ताल ,
अन्नदाता बैचेन होकर
आखिर कर रहे हड़ताल ।
आश्रयदाता भटक रहे हैं,
यह देखकर हैरान हूँ—
हर जख्म मेरे ही ,
हिस्से क्यूं आता है।
क्यों नहीं किसी को मुझ पर,
दया तनिक न आता है।।
नदियों की धार,
कभी सूखे की मार,
कभी निर्दयी प्रकृति,
कभी स्वार्थी राजनीति।।
सबकुछ जानकर भी क्यों,
मैं बेबस और बेजुबान हूँ—
भूमिहीन हो जायेंगे तो,
सोचो कहाँ रोटी होगी।
बिन रोटी के बेटी भी,
किसी कोने में रोती होगी।
जब तक हक नहीं मिलेगा,
हमारे अन्न के दाने -दाने का ।
बोलो फिर क्या मतलब रहेगा,
हमारे इस तरह कमाने खाने का।
यह सोचकर ताज्जुब होता है,
कि,मैं धरती का भगवान हूँ—
निजीकरण की इस नीति को,
लाल फाइल में बंद करो।
समर्थन मूल्य की मांग हेतु,
अपनी आवाज बुलंद करो।।
न्यूनतम मूल्य सबको मिले,
यह हम सबका अधिकार है।
अस्तित्व बचाने संघर्ष कर रहे,
और इसी बात का प्रतिकार है।।
अपनी ताकत खुद तुम खुद बनों,
मैं इस युग का आह्वान हूँ—-
©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)