लेखक की कलम से

सम्मान में मिला सम्मान …

सम्मान करने कराने का चलन आजकल पूरे चरम में है। सम्मान पाने वाला भी स्वयं को दूसरों से चार फीट ऊपर आकाश में महसूस करता है। दूसरों को वह अछूत की तरह देखता है। ऐसा नहीं कि मैं इस अहसास से अनभिज्ञ हूं। पर मैं जल्दी ही जमीन पर उतर आई। मेरे पास कई सम्मान चिन्ह इकट्‌ठे हो गए। मेरे घर में इन्हें रखने की जगह नहीं रही। मैंने इन्हें घर के द्वार के पास बाहर ही करीने से रख दिया। जिससे यह हर आने जाने वाले को दिख जाएं और उन्हें यह भी कह सकूं कि मुझे इनकी कोई परवाह नहीं। ठीक उसी तरह जिस तरह कई बड़े साहित्यकार अपना रोष प्रकट करने के लिए सम्मान चिन्ह तो वापस कर देते हैं परन्तु राशि नहीं लौटाते।

शहर में अनेक संस्थाएं हैं। साहित्यिक संस्थाएं। वे नए – नए लेखकों की तलाश में रहती हैं। जिस तरह बगुला एक टांग में खड़े रह कर मछली की झपटने की ताक में रहता है। इस संस्थाओं के प्रतिनिधि नवागंतुकों को जाल में फंसा कर अपना काम निकलवाना चाहते हैं। इन्हें सम्मानित कर ये लोग अपनी संस्था व अपना नाम चमकाना चाहते हैं। इसी बहाने अपनी तस्वीर अखबार में छपवाना चाहते हैं। ऐसी ही एक संस्था के सम्राट ने मुझे दो-तीन बार सम्मानित करने का आग्रह किया। मैंने टाला। पर उनमें बहुत समय था। उन्होंने फिर फोन किया- ‘आपको सम्मानित करेंगे।’

मैंने कहा- ‘अभी कुछ काम तो कर लेने दीजिए।’

उन्होंने पूछा- कितनी किताबें प्रकाशित हो गई ?

मैंने कहा- पांच

वे नाराज हुए- ‘हम तो अप्रकाशित कवियों को सम्मानित कर रहे हैं। आप कह रहीं हैं, अभी और काम करेंगी। आप दूसरों की तौहीन कर रहीं हैं।’

पूरे लेखक वर्ग के कोप से बचने मैं सम्मानित होने पहुंची। एक प्रशस्ति पत्र और एक कपड़ा जिसे आज तक मैंन नाम नहीं दे पाई। दुपट्‌टा, दोशाला, शॉल, माता की आधी चुनरी या क्या ?

एक संस्था के अध्यक्ष पिछले डेढ़ साल से मुझे फोन कर रहे हैं- ‘हमारी गोष्ठी में आइए।’

वयोवृद्ध साहित्यकार हैं। इसी आदर की वजह से मैं एक-दो बार पहले उनकी गोष्ठी में गई थी। मेरे घर से स्थान काफी दूर पर है। मुझे एक कविता सुनाने के लिए 400-500 का पेट्रोल खर्च कर जाना भी पसंद नहीं। इस बार फिर उनका फोन आया। मुझे लगा इतने बड़े व्यक्ति मुझे बार-बार फोन कर रहे हैं। मैंने हां कर दी। परन्तु फोन रखने से पहले उन्होंने कहा- ‘मैं इस बार लेखकों को गिफ्ट भी दे रहा हूं।’ अब इसी कारण मेरा जाना स्थगित हो गया। मुझे गिफ्ट से डर लगता है। मुझे गिफ्ट नहीं चाहिए।

एक लेखक मित्र अपने पूज्य पिताजी के श्राद्ध पर पिछले दो साल से पांच ब्राह्मणों की जगह दस लेखक बुलाने लगे हैँ। हलवा, पूड़ी, खीर तक तो ठीक था। इस बार उन्होंने लेखकों को एक-एक प्लेट भी दक्षिणा में दे दी। अब मेरी समझ में यह नहीं आ रहा कि अब हर साल हमें यही प्लेट लेकर उनके घर खाना खाने जाना है? एक दिन मेरे पति नाश्ता बना रहे थे। उन्होंने मेरा नाश्ता उसी प्लेट में रखकर दिया। शायद उन्हें लगा हो कि अपने तौलिए, ब्रश, कंघी की तरह मैंने प्लेट भी अलग कर ली है। नाश्ते में अंडा-ब्रेड थे। मैंने कहा- ‘आपने अंडा रखकर इस प्लेट को अपवित्र कर दिया। यह प्लेट तो श्राद्ध में मिली थी।’

उन्होंने मेरी तरफ इस तरह देखा। जैसे मैं पागल हो गई हूं। उन्होंने मुझसे पूछा- ‘तुम कब से श्राद्ध में जाने का काम करने लगी हो?’

वे नाश्ते समेत प्लेट लेकर बाहर निकले और कार साफ कर रहे लड़के को प्लेट देकर कहा- ‘नाश्ता कर लो और प्लेट भी साथ ले जाना।’

अपने शहर की तो छोड़िए। दूसरे शहर से भी मुझे निमंत्रण मिला। मुझे भ्रम हो गया कि मैं तो बड़ी लेखक बन गई हूं। उन्होंने कहा- ‘आप हमारी संस्था में आइए। हम आपका समन एक शॉल, स्मृति चिन्ह, प्रशस्ति पत्र और कुछ राशि देकर करेंगे।’

मैंने पूछा- ‘कितनी राशि? सामान में मेरी कोई रुचि नहीं।’

उन्होंने कहा- ‘यह आप पर निर्भर करता है कि आप हमारी संस्था को सदस्यता शुल्क 2100, 5100, 11000 में से कितना देकर लेंगी।’

मैंने बिना कुछ कहे फोन काट दिया।

पिछले दिनों एक बड़े संस्थान में कविता पाठ के लिए बुलाया गया। मैंने अपनी उच्च शिक्षा वहीं से प्राप्त की है। इसलिए मेरा उस संस्थान से लगाव है। कोई संस्था वहां अपना कार्यक्रम करवा रही थी। मैं भी गई और कविता पाठ किया। उन्होंने सब कवियों को शॉल देकर सम्मानित किया। वापस आते हुए दो और लेखक भी मेरे साथ आए। उन्होंने शॉल खोलकर नाक-भौं सिकाड़ी।

‘घटिया’ ! – एक ने कहा।

दूसरा बोला- ‘मैंने तो सुना है कि शमशान में मुर्दों पर जो अनेक शॉल चढ़ाए जाते हैं। वे यह संस्था वाले सस्ते में कवि-लेखकों के लिए खरीद लेते हैं।’

मुझे डर लगा। मैंने घर आकर शॉल अलमारी में बंद कर ताला लगा दिया। पर दिल में धक-धक बनी रही। रात में मुझे सपना आया कि जिस मुर्दे का वह शॉल था वह मुझसे शॉल छीन रहा है। मैंने डरकर उसे टांगे मारनी शुरू कर की और जोर से बोलने लगी- ‘ले लो अपनी शॉल। मुझे नहीं चाहिए। मुझे नहीं चाहिए।’

मुझे होश आया तो मेरे पति मुझे उठा रहे थे – ‘क्या हुआ ? क्या नहीं चाहिए तुम्हें ?’

मैंने देखा। मैं अपने कंबल टांगों से बेड के नीचे गिरा रही थी।

जब स्थिति समझ आई तो मैंने चुपचाप अपना कंबल उठाया और आंखें मुंद ली।

©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़

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