लेखक की कलम से

दैनिक ”हेराल्ड” एक त्रासद हादसा ….

राष्ट्रवादी रहा दैनिक ”नेशनल हेराल्ड” फिर एक बार सुर्खियों में है। फिर वहीं खराब कारणों से। दिल्ली हाईकोर्ट ने सोनिया गांधी और राहुल गांधी को नोटिस (22 फरवरी) भेजा तथा सत्र न्यायालय में सुनवाई पर रोक लगा दी। भाजपा सांसद डा. सुब्रह्मण्यम स्वामी का आरोप है कि केवल 50 लाख रुपये लगाकर सवा 90 करोड़ की राशि पाने की साजिश है। यूं भी मुकदमा पुराना है जिसमें नेशनल हेराल्ड की अरबों की संपत्ति को हथियाने की साजिश होती रहती है। डा. स्वामी का दावा है कि इस दैनिक के सितंबर 1938 में कैसरबाग लखनऊ में स्थापित करने वाले जवाहरलाल नेहरु के वंशजों को कारावास की सजा हो सकती है। हेराल्ड का एक महान और दिव्य इतिहास रहा है। आजादी की आवाज था नेशनल हेराल्ड, उसे इतिहास में ढकेल दिया गया।

हेराल्ड हाउस जिसे दिल्ली में इंदिरा गांधी ने बहादुर शाह मार्ग पर खोला था। लखनऊ में प्रकाशन 23 वर्ष (1998) पूर्व ही खत्म कर दिया गया था। अंग्रेज नेशनल हेराल्ड को बंद करने में जुटे रहे, विफल हुए। पर सोनिया-कांग्रेसियों ने उसे लखनऊ में नीलामी पर चढ़ा दिया था। साढ़े नौ दशक हुए (9 सितम्बर 1938) कैसरबाग चैराहे के पास वाली ईसाई मिशन स्कूल वाली इमारत पर जवाहरलाल नेहरु ने तिरंगा फहराकर राष्ट्रीय कांग्रेस के इस दैनिक को शुरू किया था। नेहरू परिवार की इस सम्पत्ति की सरेआम बोली तहसीलदार सदर (लखनऊ) ने 1995 में लगवा दी थी, ताकि 4 सौ कर्मियों के 22 माह के बकाया वेतन में चार करोड़ रुपए वसूले जा सके।

यू.पी. प्रेस क्लब में तब अटल बिहारी बाजपेयी ने संवाददाताओं के पूछने पर कहा था- ”जो नेशनल हेराल्ड नहीं चला पाये वे देश क्या चला पायेंगे?” देश की जंगे आज़ादी को भूगोल का आकार देने वाला हेराल्ड खुद भूगोल से इतिहास में चला गया। लेखक टामस कार्लाइल ने अखबार को इतिहास का अर्क बताया था। अर्क के साथ हेराल्ड एक ऊर्जा भी था। अब दोनों नहीं बचे। ऐसा नहीं कि इस बार कोई ज्यादा बड़ा तूफान आ पड़ा हो। जब इसके संस्थापक-संपादक के. रामा राव ने सितम्बर 1938 में प्रथम अंक निकाला था, तभी स्पष्ट कर दिया था कि लंगर उठाया है तूफान का सर देखने के लिए। तूफान बहुतेरे उठे, पर हेराल्ड की कश्ती अपना सफर तय करती रही। फिर यदि डूबी भी तो किनारे से टकराकर। उसके प्रबंधक बस तमाशाई बने रहे। क्या वजह है कि कांग्रेस के शासन काल में ही हेराल्ड का अस्तित्व मिट गया जबकि इसकी हस्ती ब्रिटिश राज के वक्त भी बनी रही थी, भले ही दौरे जमाना उसका दुश्मन था? इच्छा शाक्ति का अभाव ही है वह वजह।

कुछ मिलती जुलती हालत थी 1941 के नवम्बर में जब अमीनाबाद के व्यापारी भोलानाथ ने कागज देने से मना कर दिया था क्योंकि उधार काफी हो गया था। नेहरू ने तब एक रूक्के पर दस्तखत कर हेराल्ड को बचाया था, हालांकि नेहरू ने व्यथा से कहा भी कि ”सारे जीवन भर मैं ऐसा प्रामिसरी नोट न लिखता।” पिता की भांति पुत्री ने भी हेराल्ड को बचाने के लिए गायिका एम.एस. सुब्बालक्ष्मी का कार्यक्रम रचा था। ताकि धनराशि जमा हो सके। इंदिरा गांधी तब कांग्रेस अध्यक्ष थी। रफी अहमद किदवई और चन्द्रभानु गुप्त ने आपसी दुश्मनी के बावजूद हेराल्ड राहत कोष के कूपन बेचकर आर्थिक मदद की थी। मगर नेहरू, इंदिरा और राजीव के नाम पर निधि तथा न्यास के संचालकों ने उनकी असली स्मृति (हेराल्ड) को अपनी प्राथमिकता की सूची में कभी शामिल तक नहीं किया।

हेराल्ड ने आज़ाद भारत के समाचारपत्र उद्योग में क्रांति की थी जब 1952 में सम्पादक की अध्यक्षता में सहकारी समिति बनाकर प्रबंध चलाया गया था। तब प्रधानमंत्री नेहरू ने प्रबन्ध निदेशक मोहन लाल सक्सेना (22 अप्रैल 1952) को लिखे पत्र में इस अभिनव श्रमिक प्रयोग की सफलता की कामना की थी। भला हो उमाशंकर दीक्षित का जो कुशल प्रबंध-निदेशक बनकर आये और कश्ती बचा ली। हेराल्ड में दीक्षित के आने के पूर्व पहली बार श्रमिकों ने हड़ताल की थी। यह भी एक विडम्बना थी क्योंकि श्रमिक यूनियन का अगुवा हमेशा निदेशक मंडल की बैठक में शिरकत करता था। यह उस जमाने की परम्परा है जब भारतीय प्रबन्धकों के दिमाग में श्रमिकों की भागीदारी की कल्पना भी नहीं हुई थी। श्रमिक सहयोग का यह नायाब उदाहरण हेराल्ड में एक पुरानी परिपाटी के तहत सृर्जित हुआ था। दौर था द्वितीय विश्वयुद्ध का। छपाई के खर्चे और कागज के दाम बढ़ गये थे। हेराल्ड तीन साल के अन्दर ही बंदी की कगार पर था।

 

part 1        

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली                                                                                continue…….

Back to top button