लेखक की कलम से

मंथन …

स्मृति से विस्मृतियों को

खँगाल कर

खासा मान दिया जाए

तो

झड़प की वजहें

तकलीफ़शुदा नहीं रह जाती

कोई बालक

बक्सा भर रंग

कागज़ पर उड़ेल जाता है

 

आत्मा का छंद

कौए की कर्कशता पर भी

तार सप्तक का

राग अलापने लगता है

 

कोयल की चालाक मधुरता

जनती रहे

कऊई के नीड़ में

अपना वंश

क्या ख़ाक फ़र्क पड़ेगा

कौए की एकनिष्ठ दृष्टि में

 

लुनाई लिखते-लिखते

यदि …संवाद शहद टपकाए

कड़वी नीम के मीठे पत्ते

और

निम्बोलियों का स्वाद

जीभों पर चढ़ आए

 

तो …अवश्य ही

 

किसी कोठरी में बैठकर

कालचक्र का हिसाब करना चाहिए

विखंडित स्मृतियों को

जीवित करने के प्रयास पर

छटपटाना नहीं चाहिए…..!!!

 

©पूनम ज़ाकिर, आगरा, उत्तरप्रदेश

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