लेखक की कलम से

पंचायती आंटी …

आज तो पंचायती आंटी बहुत खुश हैं, हो भी क्यों ना ? उनके मोहल्ले में पंचायत का हिस्सा बनने एक और बकरा आया था।

अरे कहने का मतलब है एक और नई बहू मोहल्ले में ब्याह कर आई थी, अब जिसके बारे में उन्हें और ज्यादा गॉसिप करने को मिलेगी ।

वैसे तो आंटी का नाम आशा था लेकिन उनका टैलेंट हर अच्छी से अच्छी बात में निराशा ढूंढ़ निकालने का था।

मोहल्ले और जात बिरादरी की बहुओं के लिए वो काल थी तो वहीं अपनी समकालीन औरतों और मोहल्ले कि सहेलियों के लिए वो तारणहार थी। और हो भी क्यों ना , हर रोज़ बहू बेटे को कंट्रोल करने के लिए नए नए टिप्स वो यूहीं उन्हें मुफ्त में दे दिया करती थी।

मोहल्ले की हर बहू को वो अलग अलग खिताब से नवाज़ चुकी थी। किसी को आलसी तो किसी को कामचोर, तो किसी को फैशनबाज और तो और किसी को घरतोड़ू ।

हालाकि मोहल्ले की सारी बहुएं ये जरूर समझ गई थी के पंचायती आंटी भले ही उनके घर में नहीं रहती, लेकिन उनके घर का होल्ड उन्हीं के हाथ में है लेकिन बेचारी बहुएं क्या करती हालातों के आगे अपने आपको लाचार पाती थी।

मोहल्ले का हर शादीशुदा मर्द ये समझ चुका था के उसकी मां केवल आशा देवी (पंचायती आंटी )के हाथ का रिमोट बन चुकी है।बेचारे शादीशुदा मर्द करें भी तो क्या ? कभी अपनी पत्नी का किसी सही बात में साथ देने पर झिड़क दिए जाते तो कभी कुत्ते की तरह अपने ही घर में मां बाप से बहू का पक्ष लेने के जुर्म में धुत्कार दिए जाते।

कुल मिलाकर पंचायती आंटी ने अपने आचरण से सबके घर में कलेश मचा रखा था।लेकिन लोगों की जिंदगीयों में पंचायती आंटी इतना घुस गई थी के उनकी अपनी संतानों का तो जैसे होंश ही नहीं था उन्हें।

और ऊपर से पंचायती आंटी यह भी भूल गई थी के उनके भी एक बेटी है अब जो जवान हो चली है।और कुछ दिनों में शायद वो भी किसी घर में ब्याह कर जाएगी ।

खैर कुछ समय बाद आशा देवी ( पंचायती आंटी) की बेटी के लिए रिश्ते आने लगे।उनकी बेटी नैन नक्ष से तो सुंदर थी लेकिन आचार व्यवहार में अपनी मां जैसी थी। कुछ महीनों में उसकी शादी एक अच्छे घर में तय हो गई थी।लेकिन वो कहते है ना के शेर को सवा शेर मिल ही जाता है कुछ ऐसा ही आशा देवी के साथ भी हुआ।और बेटी की सास तो आशा देवी से भी ज्यादा खड़ूस थी ।

फिर क्या था आशा देवी की बेटी ब्याही जा रही थी आशा देवी मन ही मन समझ तो गई थी कि बेटी का ससुराल पक्ष थोड़ा अकडू है लेकिन अपने डर को अपने भीतर दबाए बैठी थी। तभी उन्हें रसमलाई के स्टाल से कुछ औरतों की खुसर फुसर करती आवाज़ें आई ।.. ………..

आशा देवी ने अपनी पुरानी आदतों के अनुसार वहां कान लगा लिए फिर क्या था जो बातें हो रही थी वो सुनकर सन्न रह गई …..उनमें से एक जो अपनी प्लेट में 4 – 5 रसमलाई लेकर खड़ी है वो औरत कहती – सुना है दहेज में कुछ नहीं मिला …अरे किस्मत वालें हैं जो हमारे जैसे लोग मिल गए ….वहीं दूसरी औरत जो बड़े ठाठ से मंचूरियन की प्लेट लिए खड़ी है कहती है –  अरे कोई आव भगत भी नहीं की लड़के वालों की जैसे हम कुछ है ही नहीं । तो तीसरी जो इस ठंड की शादी में कॉफी लिए खड़ी है कहती है बारात में कोई चाय नाश्ता तो रखना था वह भी नहीं कर सकते थे क्या ।

आशा देवी के तो जैसे पांव तले जमीन खिसक गई।एक वक़्त पे आशा देवी भी दूसरों के यहां शादी में जा कर पंचायतों का हिस्सा बना करती थी। कभी दूसरे की लड़कियों में मीन मेक निकाला करती थी। आज कर्मों की मार पड़ी तो आशा देवी की बोलती बंद है ।

दूसरी तरफ अपनी बेटी की सास का ,अपनी बेटी के प्रति रूखा व्यवहार और हर छोटी छोटी बातों पर ताने उलाहना देना वो पूरी शादी में नोट कर रही थी ।

पूरी शादी में एक कमी थी तो वो थी दुल्हन के चेहरे पर खुशी और रौनक की ।लेकिन वो कहां से आती ?वो तो इंसान के मन के भाव होते हैं ,अपने मां बाप को जलील होते देख भला कोई बेटी खुश रह सकती है?

लेकिन वो कहते हैं ना किसी को इतना ही दुख दो जितना खुद पर आए तो सहन कर सको। मोहल्ले की बहुएं जिनको कभी पंचायती आंटी ताने और खरी खोटी सुनाया करती थी।आज वो बहुएं जैसे यह सब दृश्य देख के अंदर ही अंदर खुश थी क्योंकि दोनों मां बेटी का अहंकार और स्वार्थ उनके सिर चढ़ कर बोलता था।

वो कहते है ना हर सिक्के के 2 पहलू होते हैं आज सिक्के का दूसरा पहलू देख आशा देवी अपने किए पर आंसू बहा रही थी और मन ही मन पश्चाताप की अग्नि उन्हें जला रही थी। …..

अब शायद आशा देवी ( पंचायत आंटी) को जीवन का असली अर्थ समझ आ रहा था के जियो और जीने दो ही जीवन जीने का मूल मंत्र है।

 

    ©परिधि रघुवंशी, मुंबई     

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