लेखक की कलम से

आखिर कमजोरों के ही कुचलते हैं मानसिक स्वास्थ्य अधिकार …

(मानवाधिकार दिवस पर विशेष)

 

©नरजिस हुसैन

2 नवंबर, 2020 को ऐश्वर्या रेड्डी ने अपनी जान ले ली। वजह थी परिवार के बदतर होते माली हालात, जिसके चलते कॉलेज की फीस नहीं दे पा रही थी ऐश्वर्या। दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज में सेकेंड ईयर (गणित) की छात्रा ऐश्वर्या तेलंगाना की रहने वाली थी। कोरोना महामारी के वक्त वह अपने घर चली गई थी और कुछ वक्त अपने परिवार और दोस्तों के साथ बिताने के बाद 19 साल की ऐश्वर्या ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया। दरअसल, कोरोना महामारी की वजह से आनन-फानन में मार्च से ही देशभर में लॉकडाउन लगा दिया गया था। ऐसे में समाज का वो तबका जो मजदूर था, हाशिए पर था उसको आर्थिक स्तर पर करारा धक्का लगा। जिसका नतीजा हुआ कि कुछेक ने अपनी जान दी और हजारों लोग जो बीते सालों में गरीबी रेखा से ऊपर उठे थे एक बार फिर वापस उसी रेखा पर आ टिके।

लेकिन, मार्च के बाद से अब तक इस हादसे की शिकार अकेले ऐश्वर्या ही नहीं हुई बल्कि उसके जैसे कइयों ने लॉकडाउन के दौरान बंद होते अपने काम-धंधे और भुखमरी की कगार पर पहुंचने से पहले ही खुद को हमेशा के लिए सुला देना बेहतर समझा। इसी साल सितंबर में पानीपत में अपने घर में 28 साल के आवेद और 19 साल की नजमा ने अपनी जान ली वजह थी शादी के एक महीने बाद ही लॉकडाउन में आवेद (पेशे से वेलेडर) की बेरोजगारी। उसे उम्मीद थी कि लॉकडाउन खुलने के बाद शायद उसे कहीं काम मिलेगा लेकिन, ऐसा न हो सका और दोनों पति-पत्नी ने तनाव और अवसाद में आकर ऐसा कदम उठाया।

उधर, उत्तर प्रदेश के बांदा में दिहाड़ी मजदूर चुटकु और रामबाबू का भी लॉकडाउन में काम छूटा और उन्होंने भी तनाव का सामना न कर पाने की हालत में खुदकुशी की। दिल्ली के चांदनी चौक में भी 40 साल के दो भाइयों ने ज्वेलरी शॉप न चला पाने के चलते अपनी जान दे दी और अपने सुसाइड नोट में लगातार बढ़ती पैसों की तंगी का जिक्र कर परिवारवालों से माफी मांगी। ऐश्वर्या के पिता श्रीनिवास रेड्डी जो मोटरसाइकिल मैकेनिक थे उन्होंने लॉकडाउन से करीब एक महीने पहले ही अपनी खुद की रिपेयर शॉप खोली थी जो कोविड-19 के शुरूआती दौर में ही बंद हो गई थी। इसका नतीजा ये हुआ कि ऐश्वर्या को फीस भरने और ऑनलाइन क्लॉसेस लेने में दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा था और आगे जो हुआ वो आज सब जानते हैं।

कोरोना काल में और इसकी वजह से समाज के खासकर निचले तबके के मानसिक स्वास्थ्य पर सीधा असर पड़ा। पहला तो लाइलाज महामारी और दूसरा बेरोजगारी, फिर पैसों की तंगी। मानसिक तनाव से पैदा हुई इन समस्याओं का असर सिर्फ एक इंसान पर ही नहीं पड़ा बल्कि भरे-पूरे परिवार को भी झेलना पड़ता है। कोरोना की शुरूआत से लेकर अब तक निचले वर्ग की मानसिक और आर्थिक दोनों ही सेहत एकदम से बिगड़ी।

देश में होने वाली कुल आत्महत्याओं की सही तादाद बता पाना मुश्किल है लेकिन, रिसर्चर्स के एक ग्रुप ने इसका हिसाब रखने की कोशिश की। उनकी स्टडी के मुताबिक 19 मार्च-2 मई तक देशभर में लगे लॉकडाउन से ऊपजी खासकर मेहनतकश तबके को आर्थिक तंगी का जबरदस्त सामना करना पड़ा। इसी दौरान कुल 338 लोगों ने देश के अलग-अलग हिस्सों में अपनी जान ली।

यह स्टडी पब्लिक इंटरस्ट टेक्नोलॉडिस्ट तजेश जीएन, एक्टिविस्ट कनिका शर्मा और जिंदल ग्लोबल स्कूल ऑफ लॉ की सहायक प्रोफेसर अमन ने मिलकर की थी। हालांकि, कुछ ही महीनों में सरकार ने लॉकडाउन को धीरे-धीरे खोला जरूर लेकिन, तब तक नेशनल सटैटिकसिकल ऑफिस के मुताबिक देश की अर्थव्यवस्था उम्मीद से भी परे नाजुक थी और जीडीपी गिरकर 23.09 फीसदी पर पहुंच गया था। लॉकडाउन ने देश में करीब 10 लाख लोगों को बेरोजगार किया और जिसमें सबसे ज्यादा मार पड़ी अकुशल और असंगठित कामकाजी लोगों पर।

कोरोना दौर में तेजी से बिगड़ते सामाजिक और आर्थिक आयामों का नतीजा ये हुआ कि लोगों के स्वास्थ्य पर तो मुसीबत आई ही इसके साथ ही नौकरीपेशा और खासकर अकुशल कामकाजी तबके में बेरोजगारी बढ़ने लगी। भुखमरी बढ़ी, औरतों की साथ हिंसा भी बढ़ी, लोन चुकाने में लोग चूकने लगे, लोग बेघर हुए, रोजमर्रा का तनाव बढ़ने लगा और इसी के साथ बढ़ने लगे खुदकुशी और खुद को चोट पहुंचाने वाले (सेल्फ हार्म) हादसे भी।

सिंतबर में समाचार एजेंसी पीटीआई से बातचीत में मनोचिकित्सक डॉ. अरविंदर सिंह ने बताया कि लॉकडाउन से जो अनिश्चितता का माहौल पैदा हुआ वह लंबा खिंचा इसमें लोगों में एंजाइटी या अवसाद पैदा होने लगा। जिन लोगों में एंजाइटी के हल्के लक्षण थे उनमें इस दौरान लक्षण गंभीर हो गए और गंभीर के और बदतर। तो इस तरह जब एंजाइटी के लक्षण बदतर हो जाएं तभी इंसान सेल्फ हार्म की तरफ बढ़ने लगता है। डॉ. अरविंदर अशोका यूनिवर्सिटी के सेंटर फॉर वेल बींग की निदेशक हैं।

दक्षिणी दिल्ली में साइकिल रिक्शा चलाने वाले अतुल बताते हैं, “जैसे ही लॉकडाउन शुरू हुआ हमारे ग्राहक आने बिल्कुल बंद हो गए। हम रोज कमाते हैं और रोज खाना खरीद कर खाते है या पकाते हैं। लॉकडाउन में कई बार ऐसा भी हुआ जब हम पूरा दिन और पूरी रात भूखे रहे। बाहर निकल नही सकते थे पुलिसवाले वापस भेज देते थे। कहीं मालूम पड़ता था कि सरकारी स्कूल में खिचड़ी बंट रही है तो दिन में एक बार ही खाना खाया। ऐसा कई महीने चला।”

अतुल का परिवार बिहार के छपरा में रह रहा था और वह उन्हें पैसे भी नहीं भेज पा रहा था लेकिन, फरमान जो बहराइच से था उसने लॉकडाउन में कमरे का किराया न दे पाने की हालत में अकेले रिक्शा चलाकर ही घर जाना बेहतर समझा। वह बताते हैं, “यहां दिल्ली में भूखों मरने से अच्छा है कि अपने परिवार के साथ गांव में रहना, कुछ तो खाने को मिलेगा वहां। भूखे प्यासे रिक्शा चलाकर अगर बचे रहे तो तीन दिनों में पहुंच ही जाएंगे गांव। अब कब वापस आएंगे या आएंगे भी कि नहीं कुछ मालूम नहीं।”

ये बात और है कि सिंतबर–अक्तूबर से सरकार ने धीरे-धीरे कर लॉकडाउन खोलना शुरू कर दिया तो लेकिन, इन कुशल और निचले वर्गों के कामगारों की समस्याएं अब भी जस की तस बनी हुई है। क्योंकि घरों से बाहर तो निकलना इन्होंने शुरू तो जरूर किया लेकिन, काम अब पहले जैसा नहीं रहा या बिल्कुल खत्म हो गया। अब इनके सामने नई चुनौतियां हैं काम नए सिरे से तलाशने की।

अतुल और फरमान जैसे दिल्ली के कितने ही रिक्शावालों, डोमेस्टिक वर्कर्स, रेहड़ीवाले, किराए की दुकान के मालिक, ऑटो और कार ड्राइवर, सड़क किनारे बैठे चाय की दुकान और मोचियों, दिहाड़ी मजदूर, और शादियों में बैंड बजाने वालों पर लॉकडाउन के दौरान आर्थिक मंदी आई और जिससे वे अब तक न उबर सके और इसी के साथ बढ़ रही है तनाव, डिप्रेशन, एंजाइटी, इनसोमनिया और नाउम्मीदी जो इस दौर में आत्महत्या के लिए जमीन तैयार कर रहा है।

भारत दुनिया के उन देशों में आता है दुनिया के सबसे गरीब और कुपोषित लोग रहते है अब जरा सोचिए कि जब इनमें डिप्रेशन और एंजाइटी बढ़ेगी तो नतीजा क्या हो सकता है। दूसरा, कोरोना दौर में आई परेशानियां खासकर बेरोजगारी और पैसों की तंगी ने न जाने कितने ऐसे लोगों को मानसिक रोगों के दरवाजे पर ला खड़ा किया है जिसकी हम उम्मीद भी नहीं कर सकते। यह आबादी सही-सही फिलहाल बता पाना अभी मुश्किल है।

सवाल ये है कि क्या ये सिलसिला यूं ही चलता रहेगा। क्या मरने वालों या कोरोना दौर में पैदा हो रही तरह-तरह की मानसिक सेहत की दिक्कतों का सामना करने वालों लोगों के कोई हक या अधिकार नहीं है…मानवाधिकार भी नहीं। दरअसल, मानसिक स्वास्थ्य को लेकर समाज में अभी तक संवेदनशीलता नहीं आ पाई है। मानसिक रोगियों को अभी ही नहीं बल्कि काफी लंबे वक्त से समाज से तिरस्कार, अनेदखी और सख्त बर्ताव का सामना करना पड़ रहा है। समाज भी ऐसे लोगों की जरूरतों को समझने और मदद के बजाए अपनी आंख बंद करना सही समझता है। कोरोना के अभी तक के वक्त में भी यही देखने को मिल रहा है कि किस तरह मजदूर और असंगठित सेक्टर में काम कर रहे लोगों और परिवारों के लिए हम सभी का रवैया कैसा रहा, कैसा है और आगे कैसा रहेगा।

भारतीय संविधान और मानसिक स्वास्थ्य देखभाल एक्ट, 2017 ने भी मानसिक रोगियों के मानवाधिकार सुनिश्चित किए हैं। संविधान ने मौलिक अधिकारों में भी साफतौर से बात कही है कि किसी भी नागरिक से बिना किसी डिस्एबिलिटी के भेदभाव किए बिना समानता का अधिकार है। संविधान का अनुच्छेद 21 हमें जीवन का अधिकार देता है जो मानव के अस्तित्व से भी बढ़कर है और वो हमें कई किस्म के अधिकार देता है और ये तमाम अधिकार मानसिक रोगियों के हक को और मजबूत करते हैं।

मानसिक स्वास्थ्य देखभाल ऐक्ट भी इस बात पर जोर देता है मानसिक रोगियों का इलाज उनकी पहुंच में हो यह इलाज मिलना भी उनका अधिकार है। इस बात के साथ और भी कई बातें सुनिश्चित करने के निर्देश सुप्रीम कोर्ट ने 1997 में राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग को सौंपी। 2014 में नेशनल मेंटल हेल्थ पॉलिसी बनी जिसमें मानसिक स्वास्थ्य समस्याओं से जूझ रहे लोगों को मानसिक चिकित्सा सुविधाएं पहुंचाने की बात कही गई है यहीं नही कई और सहूलतों के साथ यह भी कहा है कि मानसिक स्वास्थ्य रोगियों के इलाज के लिए काउंसिलर और मनोचिकित्सकों की ग्रामीण और शहरी इलाकों में सामान नियुक्तियां होगी। इसके साथ ही भारत विश्व स्तर पर मानवाधिकारों की पैरवी वाली कई संधियों और समझौतों पर हस्ताक्षर कर अपना चुका है।

पुष्पावती सिंघानिया रिसर्च इंस्टीट्यूट (पीएसआरआई) दिल्ली में मनोचिकित्सक और सीनियर कंसलटेंट साइकियाट्रिस्ट प्रोफेसर श्रीधर शर्मा ने 2017 में इंदिरा गांधी नेशनल ओपन युनिवर्सिटी के आयोजित मानसिक स्वास्थ्य कोर्स भारत में मानसिक स्वास्थ्य सेवाएं- अधिकार, कानून और भविष्य कार्यक्रम में कहा था कि ज्यादातर मानवाधिकार इसलिए भी पूरे नहीं हो पाते क्योंकि उन्हें कानून से मदद नही मिल पाती। इसलिए स्वास्थ्य से संबंधित नियमों और कानूनो को अमल में लाने और सुरक्षित रखने की जिम्मेदारी समाज की भी होनी चाहिए। उनके मुताबिक कोई भी देश तब सभ्य नहीं कहा जा सकता जब वह तकनीकी और आर्थिक तौर पर विकसित हो बल्कि, ये इस बात पर निर्भर करता है कि उसका समाज उन लोगों की कैसे देखभाल करता है जो अपना ख्याल खुद नहीं रख पाते।

अक्सर देखा गया है कि मानसिक स्वास्थ्य सुविधाओं की तंगी या कम पहुंच रोगियों का मनोबल तोड़ती है। दूसरी बड़ी वजह गरीबी और जानकारी या जागरूकता का अभाव है कि जब खाने के पैसे ही नहीं है तो इलाज कैसे कराएं। लेकिन, बहुत बार यह भी देखा गया है कि स्वास्थ्य सुविधा भी और पैसे की तंगी भी ज्यादा नही पर जानकारी और जागरूकता परेशानी के हल में पहाड़ का काम करती है।

कैम्ब्रिज युनिवर्सिटी प्रेस को 2 जनवरी, 2018 में दिए अपने एक इंटरव्यू में सेंटर फॉर मेंटल हेल्थ लॉ एंड पॉलिसी के निदेशक, सौमित्रा पठारे  का कहना था कि मानसिक स्वास्थ्य की दिशा में बने कानूनों को मानवाधिकार की राह लेनी की जरूरत है। समाज के कमजोर लोगों के अधिकारों की हिफाजत करना मानसिक स्वास्थ्य के कानूनों में सबसे पहली जरूरत होनी चाहिए। उनकी यह बात बहुत हद तक सही है क्योंकि जब तक समाज के अंतिम जन की सरकार सुध नहीं लेगी तब तक बड़ी विकास की बात करना बेमानी होगा। यानी ये कि अगर पैसों की तंगी न होती या मानसिक स्वास्थ्य की सुविधाएं कोरोना दौर में भी इस कमजोर तबके तक पहुंच पाती तो आज शायद ऐश्वर्या, नजमा, रामबाबू या चुटकु यूं अपनी जान न लेते क्योंकि जिंदा रहना देश के हर नागरिक का मानवाधिकार है।

(लेखिका दिल्ली की हैं और स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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