लेखक की कलम से

चांद तू है छुपा रूस्तम…

छू कर बदन मेरा जो चांदनी गुजर गई।

ऐ चांद तब से मैं तेरी हमसफर बन गई।।

रोज तुझे देखकर कुछ यूं मुस्कुराती हूं।

सबब पूछता है जमाना तो तेरा नाम बताती हूं।।

जिस्म पर निशां हैं तेरी उंगलियों के जो।

दामन से हर पल इन्हें मैं छिपाती हूं।।

सोचती हूं तुझे ही दिन रात अब।

जलता है जमाना इतना क्यों मुस्कुराती हूं।।

हैरान हूं अपनी इस दीवानगी पर।

चाहती हूं कहीं न जा तू रहे इधर।।

लेकिन फिर इस जमाने को होगा ऐतराज।

क्योंकि मेरा ही नहीं सभी का है तू खास।।

पर रातभर तेरी बाट जोहती हूं मैं।

मान के हमसफर मन ही मन इतराती हूं मैं।।

©ममता गर्ग, ठाकुरगंज, लखनऊ, उत्तरप्रदेश

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