लेखक की कलम से

लगाम कसना हमें भी आता है …

हर मां के ज़मीर को झांड़-झोड़ देती हैं

ये गालियां औरत की क्यूं दी जाती हैं

मां तो तुम्हारी भी होती हैं

मुंह से गंदगी निकालने से पहले मुंह गंदा नहीं होता है

या गालियां मां बहन की देने से मर्द होने का परचम लहराया जाता है

बिना गलियों के बात नहीं करा जाता है

हर हाल में खुश रहा नहीं जाता है

अगर गलत सुनकर तुम्हें गुस्सा आता है

तो सोचो एक बार हर एक औरत की गाली पर हर औरत को कितना गुस्सा आता है

ये नहीं कि हम चुप हैं या गलियां हमें नहीं आतीं हैं

इस भूलेखे में मत जीना मगर हमारे संस्कारों में ख़ुद की और किसी की बेज़त्ती करना नहीं आता है

मगर ये भी मत सोचना गलत को गलत कहने से डर कर जीना नहीं आता है

अपनी इज्जत की खातिर मुंह तोड़ जवाब देना भी आता है

मगर क्या आप मुद्दों को अपनी घाटिया सोच को बदलना आता है

अगर हां तो अपनी इज़्ज़त अपने हाथ होती है ये भूल कर जीना आता है

इसलिए अब तक जो हुआ सो हुआ अब और नहीं सुना जाता है

अब बुरे दौर में कुछ नेक शुरूवात करना आता है

घरेलू हिंसा का तोड़ यही से शुरू किया जाता है

माफ़ कीजिए अब अबला नारी नहीं बन जीना नहीं आता है

अगर मर्द हो तो अपनी जुबान को लगाम लगाओ वरना लगाम कसना हमें भी आता है …

 

© हर्षिता दावर, नई दिल्ली                                              

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