लेखक की कलम से
जियें तो कब जियें
कविता
सब कहते है मैं हूँ पराई
माँ के घर पराया धन कहलाई
पति के घर पराये घर की आईं
मेरे खुद वजूद क्या है
आज तक समझ न पाई
भाई कहता कि बहना
तू उड़ती चिड़िया है
सुबह हुए उड़ जाएगी
मैं पूछती हूँ क्यों उड़ जाएगी?
क्या बेटी का कोई
वजूद नहीं होता
सास कहती है ये तो
पराए घर से है आई
फिर क्यों माँ कहती थीं
कि ससुराल में तू रानी बनेगी
कभी कभी सोचती हूँ
कि कहीं मैं कठपुतली तो नहीं?
हाँ ……शायद मैं कठपुतली ही हूँ
पहले माँ के घर की
अब पति के घर की
जिसे बचपन से सिर्फ
जिम्मेदारियां हैं सिखाई
आज उम्र के इस पड़ाव में
एक प्रश्न चिन्ह लगा हुआ है
हम खुद के लिए जियें तो कब जियें?