लेखक की कलम से

प्रेम की सुगंध से है संबधों का निचोड़ …

गृहस्थ जीवन में तृप्ति व शांति दोनो फल की तरह है। परिवार के वृक्ष पर ये फल तब ही लगेगें, जब जडें गहरी और मजबूत होगी, जडों में जब पर्याप्त जल और खाद्य डाली जाती है, तब वृक्ष फलता फूलता है। यही प्राकृतिक समीकरण गृहस्थी पर भी लागू होता है। जैसे कि वृक्ष हमसे मांगते कम है……और हम देते ज्यादा है। यही सिद्धांत जब परिवार में उतरता है, तो गृहस्थी यही बैकुंठ बन जाती है। समर्पण का भाव जितना अधिक होगा, देने की वृत्ति उतनी ही अधिक प्रबल होगी।

“स्त्री और पुरुष दोनो का धर्म का मुल स्रोत समर्पण में है ।इस प्रवृति को अधिकार दवारा लोग समाप्त कर लेते है। घर परिवार में हम जितना अधिक अधिकार बताएंगे, विघटन उतना अधिक बढ़ जाएगा, प्रेम जैसे गायब ही हो जाएगा। भोग घर भर में फैल जाएगा। एक दूसरे को सुख पहुचाने, प्रसन्न रखने के इरादे खत्म होने लगते है। और मेंरे लिए ही सब कुछ किया जाए, यह विचार प्रधान बन जाता है।

“स्वच्छंदता यही से शुरू होती है, जो परिवार के अनुशासन को निगल लेती है ।जैसे वृक्ष में महक होती है ….वैसे ही परिवार की सुगंध होती है। ” शर्त यह है कि, जडें मजबूत रहे। बड़े बड़े ज्ञानी यह कह कर गुजर गए ।कि परिवार में हमें खुद ही सुगंध बनना पड़ता है। यहां अन्य किसी साधन से सुगंध पैदा नही की जाती ।

स्वयं अपनी सुगंध बनो, यह भारतीय परिवारो का आधार है। जैसे वृक्ष का निचोड उसकी सुगंध है, वैसे ही रिश्तो का निचोड़ प्रेम है। जड़ जितनी मजबूत है वृक्ष में उतनी महक है। ऐसे ही जिंदगी की जुडे जितनी मजबूत होगी, व्यक्तित्व उतना ही सुगंधित रहेगा ।

©तबस्सुम परवीन, अम्बिकापुर, छत्तीसगढ़

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