लेखक की कलम से

लेखक की रात …

 

सारी रात

सोती नहीं ग़ज़ल

करवट बदलती

रहती है कविता

लिखने को बेचैन

रहता है लेखक

कितनी कहानियाँ

रहती हैं चलती

कितने पात्र -कुपात्र

रहते हैं विचरते

आस -पास ,अंदर

काल्पनिक संसार का

रचयिता है वह

अपने संसार का ख़ुदा

करना चाहता है इन्साफ

अपने घड़े पुतलों से

मरता है उनकी मौत

और फिर जी उठता

भ्रम ,छल -छलावों से दूर

सच की लाठी से

ठेलता है समय का ठेला

सारी  रात चलता है तमाशा

जिसका भागीदार भी वह

और मूक दर्शक भी

बहुत भारी होती है

लेखक की रात

 

  ©डॉ. दलजीत कौर, चंडीगढ़  

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