लेखक की कलम से

क़ुदरत का नियम ….

 

जब शीतल पुरवाई चलती है।

सभी को स्पर्श कर चलती है।

शीतलता दे कर चलती है।

क़ुदरत की मेहरबानियों की

सौगात दे कर चलती है।

राहों में जो भी मिले

सभी पर अपना जादू

चला कर चलती है।

किसी में कोई फर्क नहीं करती।

किसी को कम तो

किसी को अधिक नहीं देती।

 

भोर के रथ पर सवार

जब सूरज उगता है।

सभी के लिए अंधेरा मिटता है।

आशाओं का गुलदस्ता सजता है।

हर किसी का आसमां रोशन होता है।

किसी में कोई फर्क नहीं होता है।

गरीब की कुटिया हो

या हो राजा का महल

सुकून की गर्मी सभी को देता है।

 

आलीशान वाटिका में

या छोटे मिट्टी के गमले में

जब पुष्प खिलता है।

तो सभी को देख मुस्काता है।

कोई छोटा है या बड़ा,

कोई अमीर है या गरीब,

कोई गोरा है या काला।

फूल ये सब कहां देखता है।

अपनी खुशबू की जब सौगात बांटता है।

तो किसी तरहां का फर्क नहीं करता है।

हर किसी के मन को प्रफुलित करता है।

खुशबू से भर देता है।

 

जब कुदरती आपदा आती है।

सभी को अपनी चपेट में लेती है।

कष्ट बराबर ही देती है।

कोई फर्क नहीं करती है।

कोरोना का जब जलजला आया।

तो हर किसी को बराबर सताया।

ना किसी का धन देखा।

ना किसी का रंग देखा।

ना किसी का औहदा देखा।

ना किसी का धर्म देखा।

देखा तो बस इंसान देखा।

जब चाहा, जहां चाहा।

इंसानों को शिकार बनाया।

 

थोड़ा सोचिए।

थोड़ा समझिए।

गौर कीजिए।

क़ुदरत सजा दे या तोहफा दे।

किसी में फर्क नहीं करती।

मेहरबान हो या हो खफ़ा।

भाई भतीजावाद नहीं करती।

सभी बराबर हैं।

क़ुदरत का नियम तो

यही सिखाता है।

भेद भाव के नियम तो

ख़ुद इंसान बनाता है।

क़ुदरत की मंशा के

खिलाफ़ गुनाह करता है।

फिर उसे इंसाफ बताता है।

अहंकार को सामाजिक

नियमों का जामा पहनाता है।

 

क़ुदरत के नियमों को

समझने की जरुरत है।

नज़रिया बदलने की जरूरत है।

 

©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात          

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