लेखक की कलम से
तर्ज – अकेले अकेले कहां जा रहे हो …
हमेशा ग़रीबों के रोटी जली है
खुदा तय करें क्या ये बातें भली है
सियासत हमेशा ही चमकी उन्हीं से
सदा ही सियासत उन्हीं को छली है
भले दौर कैसा रहा हो जहां में
ग़रीबों की किस्मत दुखों में ढली है
न इंसान होके भी इंसा को समझे
ज़माने की फ़ितरत ये मुझको खली है
गरीबों को मिल जाए दो जून रोटी
सुना है कहीं ऐसी बातें चली है
कभी जाके बदलेगी इनकी भी क़िस्मत
पता कर तो ‘रश्मि’ कहीं कुछ गली है
©डॉ रश्मि दुबे, गाजियाबाद, उत्तरप्रदेश