मुलाक़ात फ़रिश्ते से …
फ़रिश्तों से भी मुलाकात हो जाती है,
ये कभी सोचा ना था।
कभी जाना ना था।
जब अकस्मात एक दिन
एक नन्हें फ़रिश्ते से
मुलाकात हुई तो
विश्वास होता ना था।
ये कहानी नहीं है।
सच है।
अक्षरशः सच।
पूछने एक दोस्त का हालचाल,
पहुंचे थे अस्पताल।
वहां पर डॉक्टर, नर्सें होते हैं
जो देवतुल्य होते हैं,
ये तो अक्सर सुना था।
वहां नन्हे फ़रिश्ते भी
यूं मिल सकते हैं,
ये तो सोचा ना था।
जाना ना था
हुआ कुछ यूं दोस्तों,
किस्मत का दरवाजा यूं खुला दोस्तों।
बात कुछ यूं आगे बढ़ी।
एक शिशु के रोने की आवाज
कानों में पड़ी।
ना जाने कशिश के
अहसास कैसे थे।
हम खिंचे चले गए।
उस मासूम को एकटक
निहारते चले गए।
पता चला कि उसके अपने
उसे अस्पताल के हवाले कर
मुँह मोड़ कर चले गए।
कैसी बीमार सोच है।
अवैध कृत्य खुद करते हैं।
नाजायज बच्चे को कहते हैं।
फ़रिश्ते भी कायदे कानून
की जद में होते हैं,
ऐसा सोचा ना था।
ऐसा जाना न था।
मन में ना जाने कैसा भाव था।
दया थी या अफसोस था।
या निर्मोही लोगों पर गुस्सा था।
असमंजस ही असमंजस था।
उस मासूम की जब आंखे खुली,
चेहरे पर एक मुस्कान खिली,
तो फ़रिश्ते का रूप
प्रत्यक्ष नजर आया ।
दिल में गहरे तक
घर कर गया।
उस नन्ही सी परी से
दिल के रिश्ते में बंध गई।
सावन भादों बन
मेरी आँखें बरस गई।
मानों वो मेरे ही इंतजार में थी।
मिलने को आतुर थी।
फ़रिश्ते भी इंतजार करते हैं,
सोचा ना था।
जाना ना था।
बस फिर क्या था
पल भर में ही मैं
फ़रिश्ते की माँ बन गई।
वो मेरी जान बन गई।
कुछ कानूनी कार्यवाही कर
वो समाज की नजरों में
मेरी जायज़ सुता बन गई।
हमारे घर की शान बन गई।
हमारे जीने का मक़सद बन गई।
फ़रिश्ते भी नाजायज़ होते हैं।
कभी सोचा ना था।
कभी जाना ना था।
फ़रिश्ते जिंदगी में यूं चले आते हैं
हजारों हज़ार खुशियों से
दामन भर देते हैं।
ऐसा सोचा ना था
ऐसा जाना न था।
©ओम सुयन, अहमदाबाद, गुजरात