लेखक की कलम से

गंगा नहीं मिलेगी …

आज पद पाकर आदमी,

क्यों मद में फूल जाता है।

अपनी औकात को वो,

आखिर में क्यों भूल जाता है।।

मान दो जिसको वही,

क्यों सम्मान भूल जाता है।

अभिमान के शिखर में क्यूँ,

दौड़कर चढ़ जाता है।।

किसी से कुछ मांगों तो

वह भिखारी समझ जाता है।

दूसरे को निरीह पशु,

खुद को शिकारी समझ जाता है।।

थोड़ा सा भी कुछ सीख गया,

 तो होशियार बन जाता है।

जिस पर विश्वास करो आखिर,

वही गद्दार बन जाता है।।

आज अपने ही अपनों को,

क्यूँ आगे बढ़ने नहीं देता है?

 केंकड़ों की तरह टाँग खींचकर,

ऊपर चढ़ने नहीं देता है।

तुम सारा ब्रम्हांड घूम लो,

आदमी मन से चंगा नहीं मिलेगा।

भले ही बन जाओ भगीरथ,

तुम्हें कहीं गंगा नहीं मिलेगी।।

मन की गंदगी में आकंठ डूबा,

वो तन की गंदगी धोता है।

दूसरों को सुख -शांति देख,

सिर पीटकर व्यर्थ में रोता है।।

इसीलिए तो कहता हूँ,

मन को शांत अपने आप कर लो।

गंगा तो मैली हो गई है,

अपनी गन्दगी खुद साफ कर लो।।

©श्रवण कुमार साहू, राजिम, गरियाबंद (छग)

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