लेखक की कलम से

करोना, जाओ ना …

हाय! करोना जाओ ना।

करोना ने कवियो की संवेदनाओं को कुचला,

कवि सम्मेलन का कर रहे इंतजार।

विश्व पर संकट छाया हम तरफ मची हाहाकार,

मौत का ताण्डव होने लगा। चारों ओर भयानक

माहौल है। स्वास के लिए तड़पते इंसान, भूख से बिलखते,

पैसों के लिए तरसती आँखों की नमी, माँ -बाप की लाश का दर्द न समझ सके। नन्हें फरिश्तों से क्या गुनाह हो गए। परमात्मा तेरे दर के दरवाजे बंद हो गए।

मन की सुन लेते प्रभु ! तेरे वास का लोप सृष्टि से हो गया।

आस की उम्मीद टूटने चली। धोर विपदा की घड़ी मे धरा पडी। बाप बेटो को काधे पर धरे, बेरंग आँखों में सपने चुभने लगे। बेरोजगारी डसने लगी। लाचारी की सीमा का अंत नहीं।

कल्पना आक्रोश में भर अतीत की गर्व में पल रहे वर्तमान से भविष्य की अंधकार के तूफानों की स्याही भरने लगी।

नई पीढी का भविष्य कैद महामारी ने कर दिया।

जलन पर नमक सा लेप लगाने महामारी की पीढी जन्म लेने लगी। जैविक अत्याचार ने मानसिक रूप से चूर कर डाला।

आंक्षी की आँखों से बहने लगी। रक्त ज्वाला रूपी अश्रु धारा।

उडान भरी नहीं थी। पंख बिखर गए। कोरोना तेरे आने से कितने घर उजड़ गए।

सपने टूट जाने का दुख असहानीय, विश्व का विनाश नहीं देखा जाएगा। दिल की कलम अश्रुओं से भरी आंक्षी के हृदय से आह निकलने लगी। विनाश लीला का अंत हो ।

दर्द, पीड़ा, संताप, भय की घोर विकट परिस्थिति में डूबी कलम से कैसे लिखा जाएगा।

 

©आकांक्षा रूपा चचरा, कटक, ओडिसा                         

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