लेखक की कलम से

चीन और भारत! कितनी विषमता!! …

विशाल कम्युनिस्ट साम्राज्य चीन के मार्क्सवादी सुलतान शी जिनपिंग ने सवा करोड़ सदस्योंवाली कम्युनिस्ट पार्टी की शताब्दी पर परसों ( जुलाई 1) मानवता को धमकी दी है। ”संभलो वर्ना, (बकौल लखनवी अंदाज के) खोपड़ा फोड़ देंगे। तुम्हारा लहू बहा देंगे।” तो दुनिया तो आतंकित होगी ही। कौन है ये शी जिनपिंग? माओ जोडोंग की लाल सेना के सैनिक शी भोंगजून ने कभी सोचा भी नहीं होगा कि उनका बेटा युवान वंश के शासक महाबलवान शीजू खान उर्फ कुबलई खान (चंगेज का पोता) से भी अधिक शक्तिशाली हो जायेगा। शी जिनपिंग अपने संबोधन में पश्चिमी राष्ट्रों के अलावा शायद मोदी के भारत को भी चेताना चाहते थे। लद्दाख में भारतीय जाबाजों ने लाल सेना को खदेड़ा तो उसका दर्द झलकेगा ही। पश्चिम की ताकत से लोहा लेना सुगम है, मगर प्राच्य (भारत) की बौद्धिक विशिष्टता के सामने हीन भावना से पार पाना कठिन होगा।

लालचीन में श्रमिक बंधुआ मात्र कामगार है। बेजुबान है। भारत में श्रमिक तो यूनियन बना कर पूंजी को ललकारता हैं। यही बुनियादी अंतर है। वहां छटनी होती है, तब भी दहशतभरी खामोशी बनी रहती है। हमारे यहां तो हड़ताल और बंद आयोजित हो जायेंगे। दुनिया के विकासशील देशों की तुलना में न्यूनतम दिहाड़ी और काम के घंटे दोगुने चीन में आम बात हैं।

भारत और चीन की समता आज इसलिये आवश्यक है क्योंकि चीन की विशाल कम्युनिस्ट पार्टी, विकराल सेना और निहत्थे छात्रों के लहू से रंगे तियानमिय चौक को टीवी पर, देखकर भारतीय दर्शकों को काफी सिहरन तो हुई ही होगी। दोनों में तुलना के मानक तय करते समय समग्रता का नजरिया अपनाना होगा। मसलन दोनों एशिया की प्राचीन सभ्यतायें हैं। पर चीन में कई ऐतिहासिक लाभ रहे। वहां एक ही भाषा समूचे देश में बोली जाती है। मण्डारिन हैं। भारत में तो चार कोस में भाषा बदलती है। तो दुई कोस में पानी। चीन में दियासलाई पहले बनी थी। छापाखाना भी। बारुद भी वहीं से आया। इसका प्रयोग कर बाबर पानीपत की जंग जीता था। चीन कभी गुलाम नहीं रहा। वहां कुतुबुद्दीन ऐबक तथा आलमगीर औरंगजेब नहीं थे।

चीन का राष्ट्रीय लक्ष्य वहां की कम्युनिस्ट पार्टी ने दशकों पूर्व तय कर दिया था। पहला था ”झान किलाई” (खड़े हो, उतिष्ठ), फिर ”फा किलाई” (अमीर बनो) और ”कियांग किलाई” (शक्तिशाली बनो)। इसीलिये वहां सेना, शासन और पार्टी सर्वशक्तिमान हैं। शी जिनपिंग त्रिमूर्ति हैं। सेनाध्यक्ष हैं। पार्टी के प्रधान सचिव है। सरकार में राष्ट्रपति हैं, वह भी आजीवन। अर्थात न नामांकन, न जांच, न मतदान। भारत में ऐसा क्या संभव है? इंदिरा गांधी ने 1975 में प्रयोग किया था। नतीजन खुद रायबरेली से हार गयीं।

भारत व चीन के बीच तुलना करें जब राष्ट्रवादी जनरल च्यांग काई शेक वहां राष्ट्रपति थे। वे भारत की स्वतंत्रता के अनन्य समर्थक थे। नेहरु उनके परम मित्र थे। खासकर लावण्यवती मादाम सूंग मीलिंग शेक के। माओ के आधिपत्य के बाद भारत द्वीप—राष्ट्र ताईवान में बसे च्यांग काई शेक से मित्रता संजोय रखने के बजाय उनकी उपेक्षा करने लगे। बहुधा उस दौर की पहेली याद आती है कि भारत का भाई चीन आखिर शत्रु क्यों हो गया? संदेह है कि बजाये अमेरिका और जापान के चीन के आंकलन में भारत से खतरा अधिक दिखता रहा। तिब्बत का कैलाश मानसरोवर हिन्दुओं का था। चीन को व्यर्थ की आशंका थी ​कि अमेरिका के पक्ष में जाकर भारत भविष्य में चीन का घेराव कर सकता है। इस बीच एक घटना हो गयी थी। बान्डुंग (हिन्देशिया) में नवस्वतंत्र राष्ट्रों का अधिवेशन था। नेहरु की एक तस्वीर बहुत चर्चित हुयी। चीन के प्रधानमंत्री झाऊ एनलाई के कंधे पर हाथ रखकर नेहरु दिखे। ​चीन बड़ा है। वहां के लोग नाराज हो गये। गरीब और गुलाम रहे भारत के नेता चीन के नेता को छुटभइया समझे! फिर अरुणाचल, लद्दाख आदि पर हमला हुआ। डेढ़ वर्ष में भाई की गद्दारी से गमगीन नेहरु चल बसे।

भारत की विदेश नीति की यह एकांगीपन रहा कि उसने ​पश्चिमी जनतंत्रीय राष्ट्रों को नजरअंदाज किया। तानाशाही वाले राष्ट्र सोवियत रुस और चीन से याराना बढ़ाता रहा। लोकतांत्रिक देशों का साथ खो दिया। उसी समय (1962) चीन के हमले पर निकिता ख्रुश्चेव ने कहा भी था: ”भारत (रुस का) मित्र है। मगर चीन हमारा भाई है।” नेहरु की रुस नीति विफल रही। अत: परसो बीजिंग में छाये विकराल, विशाल समारोह के संदर्भ में भारतीयों को याद रखना होगा कि लोकशाही कई गुना तानाशाही से बेहतर है। सोने के पिंजड़े में तोता को बंद रखे। तो क्या वह अधिक सानन्द और सुखी होगा ? अथवा पेड़ पर टूटहे नीड़ में ज्यादा सकून पायेगा? ”मन लागे मेरो फकीरी में!” पुराना तराना है। यीसा मसीह ने भी कहा था : ”केवल रोटी ही सब कुछ नहीं है।” अत: आध्यात्मिक रुप से भी चीन और भारत में अंतर और विषमता गहरी है। प्राकृतिक है तथा पारम्परिक भी।

 

©के. विक्रम राव, नई दिल्ली                                          

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