लेखक की कलम से
ढलती रात …
रात यूं ढल रही है
ज्यूं शमा पिघल रही है
सुंदर पल खो रहे हैं
पर हम सो रहे हैं।
चांदनी खिल रही तो क्या
ये खिड़कियां तो बंद है
रात सोने को तो है बनी
प्रेम की घड़ियां भी चंद हैं
शवेत बेला है महकती
फेनिल लहरें भी उफनती
वो तूफां अब कहां है
ज्वार भाटों से उमडते
पूरबिया अब भी है चलती
शोखियां भी हैं मचलती
बंधन हुआ था हमारा
पर वक्त ने है मारा
आज कुछ नया हुआ है
क्यूंकि हम जग रहे हैं
जग रहा है चांद
और चमकते हैं तारे
हाय सो गए हैं संबंध सारे
पर हाय सो गए संबंध सारे।।।
©दीप्ति गुप्ता, रांची, झारखंड