लेखक की कलम से
समझौते …
कौन कहता है ??
कि घरों में ,
बाज़ार नहीं होते ,
नींव मज़बूत रखने को …
व्यापार नहीं होते ,
रूह छलनी और ….
जिस्म तार तार नहीं होते !
ये वो जगह है
जहाँ उजास भरने को
खिड़कियाँ और ,
बाहर जाने को
द्वार नहीं होते !!
कौन कहता है कि ?
घरों में
बाज़ार नहीं होते !!!
पीड़ित व्यथित मन,
हिंसा से चोटिल तन ,
संस्कारित बेड़ियाँ पहने,
उपदेश चढ़ा जीवन !!
अंधेरों का नक़ाब चढ़ा ,
करता असंख्य समझौते ।
और तिल- तिल है
मरता रोज़ नई मौतें !!
उन मौतों की ,
कच्ची क़ब्र पर……
खिलते है
कुछ नन्हें फूल !!
और क़ब्र में ,
सड़ती लाश ,
भूल जाती है …
सारी वेदना और शूल !!!
©दीप्ति गुप्ता, रांची, झारखंड
आर्ट एजुकेशन, दिल्ली पब्लिक स्कूल रांची, झारखंड में पदस्थ