लेखक की कलम से

पंख …

 

 घोसलों में सन्नाटा छाया रहा

परिन्दे उड़ते चले गये।

 काटकर चिड़ियों के पंख

कितनी आवाजें उड़ती रही

 धूआँ, गंध बनकर नभ में बहता रहा।

कितनी कीलें ठोक दी एक एक कर

 दरबे खुले के खुले रहे गये।

चिड़ियां दरबदर कर दी गई

 परिन्दों के घर बस गये।

सीड़ियाँ से ऊपर गये परिन्दे

 चिड़ियों को नीचें उतार घूरते रहे।

वो वही है समन्दर अथाह

 पानी बहता रहेगा हमेशा।

तू हमराज नहीं बन सकेगा

 उसका कभी।

वो कभी विलुप्त नही हो सकतीं

 कितना भी गिरा दो नीचें।

अडिग और अटूट द्रण रहेगी

 अपनी निच्छन्द सौन्दर्य काया के साथ।

अन्धकार कभी हमेशा नही रहता

 सूर्योदय होता है रौशन करने के लिये।

चिड़ियाँ घोसले फिर बनायेगी

 हमेशा की तरह तेजस्वी बन कर ??

©शिखा सिंह, फर्रुखाबाद, यूपी

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