लेखक की कलम से

रेल पटरी पर रोटियां …

✍ ■ नथमल शर्मा

अब तो कोविड -19 के साथ ही जीने की आदत डाल रहा है अपना शहर भी। खुल गए हैं बाज़ार। फिज़िकल डिस्टेंसिंग के साथ शाम तक खुलती है दुकानें। ज़िंदगी लौट रही है पटरी पर। हालांकि अपने रेलवे स्टेशन पर नहीं। वहां वैसा ही सन्नाटा पसरा हुआ है। बाहर एक पुराना इंजन भी वैसे ही चुप और उदास सा खड़ा है। भाप से चलने वाले इस इंजन के दिन गए। अब यह “देखने” की चीज़ होकर रह गया है। इसी इंजन के किनारे बैठ कर सुस्ता लिया करते थे कुछ मज़दूर। इंजन छांव देता था। अब यहां कोई नहीं दिखता। देश में सबसे कमाऊ पूत है बिलासपुर रेलवे ज़ोन। इसलिए देश में रेलवे पर कहीं भी कुछ हो जाए यह प्रभावित होता ही है। इसलिए कि रेलवे और बिलासपुर आपस में गुंथे हुए हैं। आत्मीय है। इसलिए आज यहां भी दु:ख पसरा हुआ है। अब ख़बरें तुरंत आती हैं। ख़बर आई कि रेल पटरियों पर आज सबेरे 16 मज़दूरों की मौत हो गई। ये सब पैदल ही निकले थे अपने गांव के लिए। थक गए। सोचा कि ट्रेनें तो बंद है। कुछ देर वहीं सो गए। पटरियों का बिछौना बनाकर सो गए।

हालांकि पटरियों नहीं सोना था। सबेरे-सबेरे एक मालगाड़ी आई और इन्हें कुचलते हुए निकल गई। सोलह लोगों की वहीं मृत्यु हो गई। चार या पांच घायल है। ये सब मध्य प्रदेश के किसी गांव के रहने वाले थे। महाराष्ट्र के जालना में एक स्टील फैक्ट्री में काम करते थे। चालीस- बयालीस दिन से कोई काम नहीं था। फैक्ट्री बंद। लाॅकडाऊन में जालना शहर ही नहीं देश दुनिया सब बंद। कौन पूछता इन गरीबों को। ये स्टील कारखाने में काम करते थे। जिसमें बनती सरिया से हमारे मजबूत घर बनते हैं, लेकिन जीवन भर इनके अपने घर नहीं बन पाते। ये अपने पेट और हमारी सुविधाओं के लिए तपते हैं।

इतने दिन तो किसी तरह गुजारा करते रहे। चालीस दिन कम नहीं होते बिना काम के। और फ़िर इन्हें तो रोज कमाना-खाना। संवेदना से परे इनके मालिक तो आधा दिन भी काम न करो तो मज़दूरी काट लेते हैं। क्या करते ? गांव लौटने के सिवा कोई और रास्ता भी तो नहीं। अक्सर लौटना बहुत कठिन होता है। त्रासद। देश भर से हज़ारों मजदूर लौट रहे हैं। लौटने के लिए कुछ साधन भी नहीं। अब ये कोटा में पढ़ने वाले तो है नहीं कि जिनके लिए सरकार बसें भेजे। इनके पिता की कूबत नहीं थी सरकारी स्कूल में भी पढ़ाने की। इनकी भी नहीं अपने बच्चों को पढ़ा सकें। इसलिए सभी गए थे कमाने-खाने। आज सबेरे पटरियों पर मरने वाले सोलह लोगों में बच्चे भी हैं। रेलवे पटरी पर इनके कटे शरीरों के पास इनका मुट्ठी भर सामान भी बिखरा पड़ा था। जिसमें कुछ रोटियां भी थी और कुछ रूपये भी दिख रहे थे। ये रोटियां आज सबेरे उठ कर खाते और फ़िर चल पड़ते पैदल- पैदल।

सुना था इन लोगों ने कि भुसावल से कोई गाड़ी (श्रमिक स्पेशल) जा रही है भोपाल। इसलिए जा रहे थे वे पांव-पांव। चालीस किलोमीटर का सफ़र पूरा कर चुके थे। औरंगाबाद के पास करमाड़ गांव तक पहुंच चुके थे। थक गए। कहां जाते। शरीर ने जवाब दे दिया तो वहीं सो गए। निर्मम मालगाड़ी ने रौंद दिया। सबेरे उठने से पहले ही सफ़र आखिरी कर लिया। अनचाही अनंत यात्रा पर निकल गए। औरंगाबाद से गुज़रते हुए उन्हे अजंता एलोरा की गुफ़ाएं कहां याद आई होंगी ? पढ़े होते तो जान पाते। जान भी लेते तो क्या कर सकते थे। भूख कुछ भी सोचने नहीं देती। मरने के बाद शोक संवेदनाओं के ट्वीट चल रहे हैं। कल तक जिन्हें कोई जानता भी नहीं था आज स्मार्ट फोन पर उनकी तस्वीरें शेयर हो रही है। इतनी संवेदना बची हुई है (शायद)। व्यवस्था बहुत निर्मम होती है लेकिन संवेदनशीलता के दिखावे में सबसे आगे भी। मध्यप्रदेश के मुख्यमंत्री ने इन मृतकों के परिवार के लिए पांच- पांच लाख रुपए देने का ऐलान किया है।

काश कि इस कोविड 19 की त्रासदी को राज्य सरकारें समझ पाती। अपने प्रदेश के जो मजदूर जहां फंसे हैं वहीं उन्हें सहायता दे देते। और कहते कि अभी जहां हो वहीं रहो तुम्हारी सरकार साथ है। हालात ठीक होने पर आना। लोकतंत्र में लोक कल्याणकारी सरकार की प्राथमिकता में आम आदमी अब रह ही कहां गया है। उसके लिए तो उसका गांव नगर छोड़ना मज़बूरी है।

अपने इसी बिलासपुर स्टेशन ने ऐसे हज़ारों मजदूरों को काम की तलाश में जाते देखा है। उन्नीसवीं सदी में 1882 में पहली बार रेल आई थी यहां। बना था यह स्टेशन। ब्रिटिश राज में बंगाल- नागपुर रेलवे कहलाता। तारबाहर चौक से शुरू होती है सीमा। इसी पर रेलवे ने अपना प्रवेश द्वार लगाया है। जिस पर बीएनआर का मोनो बना हुआ है। इसी स्टेशन से रेल गाड़ियों में भर कर गए हैं, जाते रहे हैं मज़दूर उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र से लेकर जम्मू-कश्मीर तक भी। चार- छ: महीने बाद लौटते। कुछ नए कपड़े और कुछ हज़ार रूपये लेकर। जिससे कर्ज चुकाते या बिटिया का ब्याह करते या घर बनवा लेते। अगले बरस फ़िर जाते। इसे पलायन कहते। खूब शोषण भी होता इनका।

ईंट भट्ठों में गुलामों सी जिंदगी। लौटते समय इस पुराने भाप इंजन के पास बैठ कर जरा सुस्ताते। अपना दु:ख बिना कहे ही कह जाते और लौट जाते फ़िर मस्तूरी, रानीगांव, अमेरी या घुरू। जहां फिर से घेरे सी जिंदगी जीने को अभिशप्त। अपनी जिंदगी जी चुका इंजन देखता इन्हें इस तरह आते -जाते। वह कुछ नहीं कर पाता। कह पाता। बरसों से चल रहा है यह पलायन। अपने छत्तीसगढ़ को बने बीस बरस हो गए पर अभी तक यहां प्रवासी श्रमिक अधिनियम नहीं बना है। मध्यप्रदेश के तत्कालीन मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह ने बनवाया था यह नियम। तब हम भी एमपी वाले ही थे। फ़िर भाई बंटवारा हो गया और हम सबले बढ़िया छत्तीसगढ़िया हो गए। यह नियम लागू हो तो कुछ राहत मिले।

होना तो यही चाहिए कि गांवों में ही इतना काम मिल जाए कि बाहर जाना ही न पड़े। पर तब तक इनके लिए यह अधिनियम ही लागू हो जाए। अपनी अरपा के किनारे बसे हैं सैकड़ों गांव। सभ्यता तो नदियों के किनारे ही विकसित हुई पर ये तो मज़दूर ही रहे हमारे लिए। असभ्य ही। हम पढ़- लिख कर सभ्य हो गए। ऐसी सभ्यता रची कि बूढ़े इंजन “देखने” की चीज़ होकर रह गए।,, जिनकी कल जयंती थी। फेसबुक, वाट्स अप भरे थे बुद्ध के संदेशों से। उसी गुफ़ा के पास सोलह मजदूरों की मौत हो गई। और हजारों चल रहे हैं पैदल कि किसी तरह लौट जाएं गांव अपने। घर अपने। बुद्ध सो रहे हैं और अरपा किनारे सौ बरस का बूढ़ा इंजन भी उदासी लिए इंतज़ार कर रहा है उनके लौटने का। हम सबेरे की चाय के साथ संवेदनहीन टीवी स्क्रीन पर उन्हें देख रहें हैं। शाम तक यह ख़बर पुरानी हो जाएगी तब तक हम दोनो वक्त का भोजन कर चुके होंगे। वहां रेल पटरी के किनारे सूख गई होंगी रोटियां जिन्हें कोई नहीं खाएगा।

–लेखक देशबंधु के पूर्व संपादक एवं वर्तमान में दैनिक इवनिंग टाइम्स के प्रधान संपादक हैं।

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