लेखक की कलम से

अनकही सी कहानी

कुछ अनमनी सी, कुछ अनकही सी कहानी बन जाती हूं।
सबके साथ चलते-चलते खुद से अनजानी बन जाती हूं।
हैं मुझमें भी कुछ आशाएं जिंदा अभी
हैं पाने अधूरे मुकाम चाहे थे जो कभी
मेरे हिस्सेमें अक्सर रेत के घरौंदे आते हैं
जो इक ज़रा सी लहरों में खुद-ब-खुद ढह जाते हैं।
इस बहती रेत में भी मैं अपना आशियाना ढूंढती जाती हूं।
कुछ अनमनी सी कुछ अनकही सी कहानी बन जाती हूं।
है बसता मुझमें भी एक संसार है
जिनमें खुशियों के रंग हजार है
रंगीन सपनों के कैनवास पर चित्र कई उकेरती हूं।
शोर गुल में भी उसकी खामोशियों को सुनती हूं।
हूं मौन,मगर जड़ नहीं ये राज़ बताती हूं।
कुछ अनमनी सी कुछ अनकही सी कहानी बन जाती हूं।
तुम्हें शिकायत है कि मैं समझना पाई तुम्हें
मगर अपनी गुमनामियों में सिर्फ पाया है तुम्हें
खुद को खोकर भी मैं मतलबी कहलाती हूं!!
इतनी बड़ी दुनिया में क्यों मैं ‌अकेली रह जाती हूं।
कुछ अनमनी सी कुछ अनकही सी कहानी बन जाती हूं।
सबके साथ चलते चलते खुद से अनजानी बन जाती हूं।।

©मयूरी जोशी  कटक, ओड़िशा

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