लेखक की कलम से

गणेश : एक श्रमजीवी पत्रकार …

 

अगर इतिहासकार अलबरूनी की बात स्वीकारें तो श्रेष्ठतम सम्पादक हैं गणेश। इसे वेदव्यास ने भी प्रमाणित किया था। वर्तनी, लेखनी, प्रवाह और त्रुटिहीनता की कसौटी पर गणेश खरे उतरते है। इस पूरी गणेशकथा में हम श्रमजीवी पत्रकारों के लिये रूचिकर वाकया यह है कि गणेश सर्वप्रथम लेखक और उपसम्पादक हैं। यूं तो देवर्षि नारद को प्रथम घुमन्तू संवाददाता और संजय को सर्वप्रथम टीवी एंकर कहा जा सकता है, मगर गणेश का रिपोर्ताज में योगदान अनूठा है। मध्येशियाई इतिहासकार, गणितज्ञ, चिन्तक और लेखक अल बरूनी ने एक हजार वर्ष पूर्व लिखा था कि वेद व्यास ने ब्रह्मा से आग्रह किया था कि किसी को तलाशे जो उनसे महाभारत का इमला ले सके। ब्रह्मा ने हाथीमुखवाले गणेश को नियुक्त किया। वेदव्यास की शर्त यह थी कि गणेश लिखते वक्त रुकेंगे नहीं और वही लिखेंगेगे जो वे समझ पायेंगे। इससे गणेश सोचते हुए, समझते हुये लिखते रहे और व्यास भी बीच-बीच में विश्राम करते रहे। (एडवार्ड सी.सचान, अलबरूनीज इंडिया, मुद्रक एस. चान्द, दिल्ली, 1964, भाग एक, पृष्ट 134)।

अब एक आधुनिक पहलू पर गौर करें। एडोल्फ हिटलर ने अपनी नेशनल सोशलिस्ट (नाजी) पार्टी का निशान (1930) स्वस्तिक बनाया था, तो प्राच्य के मनीषियों का व्यग्र होना सहज था। ओमकार स्वरूप गणेश के इस सौर प्रतीकवाले शुभ संकेत को उसने वीभत्स बना डाला था। हिटलर ने अपने अमांगलिक और अमानुषिक कार्ययोजना में इस वैदिक प्रतीक का जुगुप्सित प्रयोग किया था। स्वस्तिक को गणेश पुराण के अनुसार गजानन का स्वरूप तथा हर कार्यों में मांगलिक स्थापना हेतु शुरूआत को मानते हैं। श्रीगणेशाय नमः के उच्चारण के पूर्व स्वस्तिक चिन्ह बनाकर ”स्वस्ति न इन्द्रो बुद्धश्रवाः“ स्वस्तिवचन करने का विधान है। अपने स्वराष्ट्रवासी प्राच्यशास्त्री मेक्सम्यूलर को पढ़कर इस जर्मन नाजी तानाशाह ने अपने पैशाचिक अभीष्ट को हासिल करने हेतु स्वस्तिक को अपनाया था।

लेकिन हिटलर का वही हश्र हुआ जो सूर्यपुत्र अहंतासुर का हुआ जिसका भगवान गजानन ने धूम्रवर्ण के अवतार में जगद् कल्याणार्थ वध किया। ब्रह्मा द्वारा कर्माध्यक्ष पद पाकर सूर्य को अहंकार हो गया था और तभी उनके नथुनों के वायु से अहंतासुर का जन्म हुआ था। वह भी अभिमानी होकर समस्त ब्रह्माण्ड का शासक, अमर तथा अजेय होना चाहता था। दैत्यगुरू शुक्राचार्य से गणेश मंत्र की दीक्षा प्राप्त कर अहन्तासुर राक्षस ने पार्वतीपुत्र की घोर उपासना की। भोले बाबा के आत्मज ने इस दैत्य को तथास्तु कहकर वर दे डाला। फिर वही हुआ जो हर दैत्य करता आया है। वही जो हिटलर ने गत सदी में किया था। पापाचार, नरसंहार, तबाही आदि। लाचार, निरीह देवताओं तथा मानवों ने गणेश की उपासना की। अपने भक्तों की रक्षा में गजानन ने उग्रपाश फेंक कर सभी असुरों का वध कर दिया। घमण्ड तजकर अहंतासुर गणेश का शरणागत हो गया। उसे आदेश मिला कि जहां गणेश की आराधना न होती हो वहीं जा कर वास करे।

राजनीतिक रूप में गणेश का राष्ट्रवादी तथा जनकल्याणकारी उपयोग स्वाधीनता सेनानी, महाराष्ट्र केसरी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक ने हिटलर के आविर्भाव के पैंतीस वर्ष पूर्व पुणे में सर्वप्रथम किया था। अंग्रेजी साम्राज्यवादियों ने अपने भारतीय उपनिवेश में हर प्रकार की सार्वजनिक क्रियाशीलता पर प्रतिबंध लगा दिया था। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम (1857) कुचल दिया गया था। शासकों ने भारतीयों को जाति तथा मजहब के आधार पर विभाजित कर दिया था। महाराष्ट्र के पेशवा शासक 1893 के पूर्व तक गणेश चतुर्थी भाद्रपद माह के शुक्ल पक्ष की चतुर्थी को मनाते थे। लोकमान्य तिलक ने इस धार्मिक उत्सव के जनवादी पहलू को पहचाना। उसे जनान्दोलन बनाया। तभी भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की स्थापना मुम्बई में हुये आठ वर्ष हो चुके थे। मगर सार्वजनिक आयोजन पर रोक बरकरार थी। हिन्दू चेतना को तिलक ने जगाया और जनपदीय स्तर से उठाकर गणेश चतुर्थी को राष्ट्रीय रूप दिया। चूंकि अन्य ईश्वरों की तुलना में गणेश किसी जाति या वर्ग विशेष के नहीं थे अतः सर्वजन के इष्ट बन गये। गणेशोत्सव में सभी हिन्दू शरीक हो गये। उन्हीं दिनों तिलक के उग्र संपादकीय (समाचारपत्र मराठा तथा केसरी में) छपते थे जिनसे साम्राज्यवाद-विरोधी भावना को बल मिलता था। उनका सिंहनाद कि ”स्वतंत्रता मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है, मैं इसे लेकर रहूंगा“ काफी ख्यात हुआ। गणेश चतुर्थी को तिलक ने जनविरोध का माध्यम बनाया। बौद्धिक चर्चायें, नुक्कड़ नाटक, कविता पाठ, संगीत आदि माध्यम अपना कर गणेश चतुर्थी को मात्र लोकरंजन ही नहीं लोकराज के संघर्ष का मंच भी बनाया गया। स्वतंत्रता के बाद तो गणेश चतुर्थी को राष्ट्रीय पर्व की मान्यता मिल गई।

गणेश के गृहस्थ होने की बात विवादित है। दक्षिण भारत, विशेषकर तमिलनाडु में, उन्हें ब्रह्मचारी मानते हैं। उत्तर भारत में प्रसंग भिन्न है। यह जानीमानी घटना है कि दोनों भ्राताओं (कार्तिकेय) में प्रतिस्पर्धा हुई कि पहले किसका पाणिग्रहण हो। दुनिया की परिक्रमा की शर्त रखी थी माता-पिता ने तो गणेश ने शार्टकट का रास्ता अपनाया और शिवपार्वती की परिक्रमा कर अपना दावा पुख्ता कर लिया। नाराज होकर देवताओं के सेनापति कार्तिकेय दक्षिण भारत में बस गये और अविवाहित रहे। गणेश की दो भार्या थीः ऋद्धि और सिद्धि तथा दो सन्ताने हुई क्षेम और लाभ जिसकी वणिकवर्ग और श्रेष्ठिजन पूजा करते हैं।

यूं शिव ने देवताओं के शुभकार्य हेतु गणेश की सृष्टि की मगर अन्य गमनीय विभूतियां और विलक्षणतायें भी गणेश में हैं। शिव के रौद्ररूप की धार कम करना हो तो गणेशोपासना कीजिए। निर्विघ्नता, कर्मनाश और धर्मप्रवर्तन के अलावा गणेश ललित कलाओं और संस्कृति के संरक्षक हैं। एक बार वे मृदंग बजा रहे थे कुपित शिव ने उसे त्रिशूल से तोड़ दिया। तबला की उत्पत्ति तभी से हुई। जटिलता को सुगम बनाने में उन्हें महारत है जैसे भारीभरकम हाथीवाला शरीर नन्हे चूहे पर टिके, यह भौतिक संतुलन मुमकिन कर दिखाया।

चूहे का ही प्रसंग है। एक बार सांप दिख गया था तो चूहा भागा और गड़बडा कर गणेश जी घराशायी हो गये। इस नजारे पर चन्द्रमा हंस पड़े। गणेश ने शाप दे दिया कि उसका आकार घटता बढ़ता रहेगा। तभी से चन्द्रमा के लिए बालेन्दु से पूर्णचन्द्र और फिर प्रतिपदा से अमावस तक का दौर चलता है।

तो उस महान सम्पादक व लेखक वक्रतुण्ड, एकदन्त, गजवक्त्र, लम्बोदर, विकट, विघ्नराज, धूम्रवर्ण, भालचन्द्र, विनायक, गणपति, गजानन को उनके जन्मोत्सव पर हमारा सादर नमन।

 

    ©के. विक्रम राव, नई दिल्ली    

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